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"हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" के अवतरणों में अंतर
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− | + | तो "फ़ैज़" दिल में सितारे उतरने लगते हैं |
23:50, 29 जनवरी 2008 के समय का अवतरण
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं
हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं
तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं
हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है
जो अब भी तेरी गली गली से गुज़रने लगते हैं
सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन
तो चश्म-ए-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं
वो जब भी करते हैं इस नुत्क़-ओ-लब की बख़ियागरी
फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं
दर-ए-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है
तो "फ़ैज़" दिल में सितारे उतरने लगते हैं