भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"वह स्वर न जाने कहाँ गया / पृथ्वी पाल रैणा" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पृथ्वी पाल रैणा }} {{KKCatKavita}} <poem> मेरी आं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
22:16, 4 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण
मेरी आंखें खोज रहीं
वह मंज़र जाने कहां गया
भाव जम गए एक एक कर
बर्फ बन गया वक्त और
सर्द हवाएँ तन को चीरे
भीतर ही गुमनाम हो गई
क्या होगा अब जीवन का
सांसें मेरी ढूंढ रहीं
वह स्वर न जाने कहां गया