"गहरा अँधेरा/ पृथ्वी पाल रैणा" के अवतरणों में अंतर
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22:40, 4 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण
हृदय में है व्यथा का गहरा अँधेरा,
और उजालों की नहीं उम्मीद कोई ।
सांझ है, फिर खूब गहरी रात होगी
मैं न हूँगा, पौ फटेगी जब नई ।
अब मुझे उस पार जाने के लिए,
रात भर चलना है एकाकी ।
कौन जाने उस तरफ कैसी फिज़ा है
पीछे मुड़ कर देखना भी पाप है
यही केवल सीख पाया हूं यहां से ।
उम्र भर के सफऱ से मैं थक गया हूं,
सोचता हूं, सांस ले लूं फिर चलूं ।
भाग्य की कैसी लकीरें समय के कैसे अनुग्रह
मन की शायद यह कोई तरकीब है
रोक रखने की मुझे इस पटल पर
मैं तो इक सीधा सरल इन्सान हूँ
मैं भला इस विश्व के किस काम का
समर कोई जीत मैं पाया नहीं,
अहं के खूँटे से बाँधे स्वयं को;
आड़े व्यवस्था के कभी आया नहीं ।
भौर के भानु की उजली किरण हो,
या थके सूरज की ढलती धूप
मैं किसे चाहूं ? समझ पाया नहीं ।
यही जीवन का सरल इतिहास है,
आदमी हूं, सोचता हूं इसलिए;
क्यों मेरे सिर पर कोई साया नहीं ।