भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"तारे निकले हैं / दामोदर अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दामोदर अग्रवाल |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

03:19, 7 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण

घेर चाँद को चाँदी जैसे, तारे निकले हैं,
आज इकट्ठे ही सारे के सारे निकले हैं!
नीला-नीला आसमान का
महल बनाया है,
हर तारा है कमरा, उसको
खूब सजाया है,

खुली-खुली-सी खिड़की है, गलियारे निकले हैं!
घेर चाँद को चाँदी जैसे, तारे निकले हैं।

जैसे परियाँ आ जाती हैं
कथा-कहानी में,
झाँक रहे तारे वैसे ही
नीचे पानी में,

कमल खिले हैं या जल से गुब्बारे निकले हैं!
घेर चाँद को चाँदी जैसे, तारे निकले हैं।

नीचे से ऊपर तक सारा
चाँदी सोना है,
धुला-धुला-सा उनसे ही सब
कोना-कोना है,

कहीं-कहीं कुछ बादल भी कजरारे निकले हैं,
घेर चाँद को चाँदी जैसे तारे निकले हैं!

-साभार: नंदन, अक्तूबर, 1987, 30