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23:16, 13 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण
भूल जाती हूं तुम भी उतना ही रास्ता पाट चुके हो
मेरे साथ-साथ
उतने ही श्रान्त-क्लान्त
मैंने जाना जो था
तुम्हें एक पुरुष
छाता
ठिया
रोटी और सैर
भूल जाती हूं
तुम्हारे भी गतिहत चरण चुन रहे होंगे
समय की घास पर अंकित अपनी छापें
काल के निप्रींत पैरों से डरकर
तुम्हें भी टेरता होगा आकाश
‘पतिपन’ और ‘पितापन’ की
खोखल से उचककर
ओ तुम!
जाओ
त्वरित हों तुम्हारी अधूरी यात्राओं के पैर
छोड़ जाओ बेशक यहीं
अपने श्रमिक कन्धे
ले जाओ अपनी आंखें
कान
नाक
मन
खोज लो अपनी धारा
एकदम विवस्त्र होकर...