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"भूख का सिलसिला बताता है / दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी'" के अवतरणों में अंतर

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भूख का सिलसिला बताता है
 
भूख का सिलसिला बताता है
 
आदमी आदमी को  खाता है
 
आदमी आदमी को  खाता है

01:33, 14 अक्टूबर 2015 का अवतरण

मैंने लौ रक्खी थी और उसने हवा रक्खी थी इक दिया था जहाँ दोनों की अना<ref>घमंड</ref> रक्खी थी

उसका ही काम अँधेरे को बढ़ाना होगा जिसकी दूकान पे आँखों की दवा रक्खी थी

वो भी उस रोज़ बहुत ख़ुश था हवा भी थी ख़ुनक<ref>ठंडी</ref> और कुछ थोड़ी से मैंने भी लगा रक्खी थी

तू नहीं है मिरी कश्ती का मुहाफ़िज़<ref>रक्षक</ref>वो है मैंने मांझी से यही शर्त लगा रक्खी थी

घर मेरा छीनती कैसे न हवेली आख़िर मैंने ख़ुद बीच की दीवार हटा रक्खी थी

शब्दार्थ
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भूख का सिलसिला बताता है आदमी आदमी को खाता है

दिन निकलते ही झुक गए हम लोग कौन काँधों पे बैठ जाता है

ज़िन्दगी की ल्ड़ाई में यारो ज़ख़्म ही रास्ता बनाता है

मुद्दतों के लिए ज़ुबाँ कोई लाल फ़ीतों में बाँध जाता है

जब चिराग़ों से कुछ नहीं होता तब कोई मशअलें जलाता है

घर से हर शख़्स अपने चेहरे पर कुछ सवालों को ओढ़ आता है

वो अँधेरा जला के रोज़ाना सर्द कमरे में छोड़ जाता है

आज गलियों में गालियाँ हर रोज़ हम्द<ref>भजन</ref> की तरह गुनगुनाता है

जैसे रस्सी पे चल रहा हो ‘शबाब’ आदमी यूँ क़दम उठाता है

शब्दार्थ
<references/>

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