भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जब से अपनाई है फ़ितरत उस कली ने ख़ार की / ज़ाहिद अबरोल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल |संग्रह=दरिया दरिया-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
02:52, 27 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण
जब से अपनाई है फितरत उस कली ने ख़ार की
ख़ार सी लगने लगी है हर कली गुलज़ार की
आ गए वो दाद देने हसरत-ए-दीदार की
ख़त्म होने को थी जिस दम ज़िन्दगी बीमार की
चांद, गुल, क़ौस-ए-कुज़ह सब को ख़फ़ा हम ने किया
नामुकम्मल ही रही तारीफ़ उस रूख़्सार की
तोड़ दे तन्हाइयों की आहनी दीवार को
ख़ामुशी खा जाएगी वरना इसी दीवार की
मौसम-ए-बारिश में घर से कम निकलते हैं सभी
इन दिनों में सूख जाती है नदी दीदार की
यास के साए में है “ज़ाहिद” उमीदों का चमन
ज़िन्दगी अब मुस्कराहट है किसी बीमार की
शब्दार्थ
<references/>