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"जब भी कोई अपनों में दिल का राज़ खोलेगा / ज़ाहिद अबरोल" के अवतरणों में अंतर
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जब भी कोई अपनों में, दिल का राज़ खोलेगा
आंसुओं को समझेगा, आंसुओं में बोलेगा
क्यूं बढ़ाये रखता है, उसकी याद का नाख़ुन
रोते रोते अपनी ही, आंख में चुभो लेगा
ताजिरान-ए-मज़हब को, नींद ही नहीं आती
आदमी तो बरसों से, सो रहा है सो लेगा
आंख, कान, ज़िहन-ओ-दिल, बेज़बां नहीं कोई
जिस पे हाथ रख दोगे, ख़ुद-ब-ख़ुद ही बोलेगा
आज ही की मुश्किल है, लड़ रहे हैं हम तन्हा
कल तो यह जहां सारा, अपने साथ हो लेगा
तू ख़िरद के गुलशन से, फल चुरा तो लाया है
उम्र भर तू अब ख़ुद को, ख़ुद में ही टटोलेगा
मैं उस एक लम्हे का ,मुन्तज़िर हूं ऐ “ज़ाहिद”
जब हर इक का ग़म उसके, सर पे चढ़ के बोलेगा
शब्दार्थ
<references/>