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"एक दिन हक़ीक़त की आग में वो जलते हैं / ज़ाहिद अबरोल" के अवतरणों में अंतर

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03:23, 27 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण


एक दिन हक़ीक़त की आग में वो जलते हैं
उम्र भर ख़यालों की गोद में जो पलते हैं

इस क़दर हुए रूस्वा, हम तिरी महब्बत में
सर उठा के चलते थे, सर झुका के चलते हैं

लोग हैं कि जैसे हों, बांस के घने जंगल
आग को जनम दे कर, ख़ुद ही उसमें जलते हैं

हम पुरानी यादों को, भूल तो गए लेकिन
अब भी इन मज़ारों पर, कुछ चिराग़ जलते हैं

चाह कर भी हम जिनका, सर कुचल नहीं सकते
मन की आस्तीं में तो, ऐसे सांप पलते हैं

बस गये हैं हम “ज़ाहिद”, आ कर ऐसी नगरी में
रोज़ जिसकी गलियों से, ता‘ज़िये निकलते हैं

शब्दार्थ
<references/>