भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रात यादों के राहज़न आकर हिज्र के कारवाँ को लूट गये / ज़ाहिद अबरोल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(' {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल |संग्रह=दरिया दरिय...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
}}
 
}}
 
[[Category:ग़ज़ल]]
 
[[Category:ग़ज़ल]]
</poem>
+
<poem>
  
 
रात यादों के राहज़न आ कर, हिज़्र के कारवां को लूट गए
 
रात यादों के राहज़न आ कर, हिज़्र के कारवां को लूट गए

03:41, 27 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण


रात यादों के राहज़न आ कर, हिज़्र के कारवां को लूट गए
और पल भर में यास.ओ.ग़म के सभी, आइने चरमरा के टूट गए

वो उमीदों के आइने जिन पर, पत्थरों का असर न होता था
आज उन पर किसी की आंखों से, एक आंसू गिरा वो फूट गए

हम ने इन ख़ारिजी शिकस्तों से, ख़ुद को महफ़ूज़ रखना सीखा था
हम मगर जब संभल संभल के चले, अपने अंदर कहीं से टूट गए

मुझसे मिलता तो ख़ैर क्या उन को, कुछ न कुछ दे के ही गए हैं वो
यह तो मैं यूं ही कहता फिरता हूं, लोग मुझ सादःदिल को लूट गए

यास, उम्मीद और चाहत के, ग़म, ख़ुशी, दर्द और मुहब्बत के
ज़िन्दगी के सफ़र में ऐ “ज़ाहिद”, कितने ही साथ थे जो छूट गए

शब्दार्थ
<references/>