"तेसर खण्ड / भाग 2 / बैजू मिश्र 'देहाती'" के अवतरणों में अंतर
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विधिक विधान सभक अछि ऊपर,
टरत समय पर अपने आप।
बनता भरथ राज्य केर अधिपति,
सुनि मनमे अछि अतिसैं हर्ष।
सेवा करब विपिन ऋषि मुनिकें,
सहजहि बीतत चौदह वर्ष।
भरथ हमर छथि भाइ सहोदर
नीति रीति सभ विधि सम्पन्न।
अछि विश्वास हुनक शासनमे,
प्रजा रहत नहि कतहु विपन्न।
बोधि पिता पुरजन परिजनकें,
गेला राम माताक निवास।
कुहकै छली जहाँ कौशिल्या,
सुनि बिछोह रामक वनवास।
राम राम कहि खसली भू पर,
देखि रामकें अपन समक्ष।
नयन अश्रु जलधार बहैछल,
करूणा पूर्ण छल हुनकर कक्ष।
देखि मायकें दुखमे डूबलि,
राखिने सकला स्वयं सम्हारि।
हिनको नयन अश्रुसँ भीजल,
धैर्य धयल, पुनि कयल गोहारि।
रघुकुलमे अछि जन्म हमरतैं,
पिता वचन टारब नहि धर्म।
मर्यादाकें शिखर चढ़ाबी,
पावन हैत हमर निज फर्म।
बोधिवाधि माताकें जैखन,
चलला राम सुमित्रा गेह।
तैखन जलद नयन लए अयली,
कौशल्या गृह सुता विदेह।
कानि कानि कहलनि माताकें,
हमहूँ जायब हिनके संग।
सेवा करब सतत रहि संगहि,
बनब पतिव्रत धर्मक अंग।
पिघलि गेली माता कौशल्या,
रामचन्द्रकें आज्ञा देल।
संग दैत छी इहो धरोहर,
राखब हिनका सहदय भेल।
आबि तुलैली ततए सुमित्रा,
संग छला श्रीलखन कुमार।
बजली लखन संगमे जैता,
रखता रक्षा केर सब भार।
राम बुझैलनि बहुत लखनकें,
किन्तु लखन नहि मानल बात।
कहल, सहल नहि जायत हमारा,
बिना अहाँ ई बज्राघात।
चलला राम, लखन सिय संग,
राखि अपन कुलरीति अभंग।
बाहर प्रजावर्ग छल ठाढ़
बहइत दृगजनु घन आषाढ़।
ज्ञानि गुरू वशिष्ठ सम धीर,
हुनको दृग छल बहइत नीर।
छला सारथी ठाढ़ सुमंत,
बहइत नयनक नोर अनंत।
सभ मिलि कयल घोर चित्कार,
भेल करूण रस छल साकार।
रथ चढ़ि चलला वन श्री राम,
चलल संग जन गामक गाम।
कानि कानि बहु खाथि पछाड़,
मीनक मन जनु भेल सुखाड़।
राम देल वहुविधि उपदेश,
किन्तु ने पड़ल प्रभाव लेस।
प्रथम दिवस तमसा विश्राम,
कएलनि सभक संग श्री राम।
निसा रातिमे रथ मगबाए,
कहल सुमंतकें बात बुझाए।
प्रात काल सभ जएता जागि,
जाएने सकब कोनो विधि भागि।
ऐखन चलि सिय लखन समेत,
चलू अनत बिनु दए शंकेत।
पहुँचि गेल सभ भोरे भोर,
श्रृंग बेरपुर भए गेर शोर,
अएला राम सिय लखनक संग,
सुनि सबहक उर अमित उमंग।
गुह निषाद सुनि प्रिय संवाद,
अएला लए फल मूल प्रसाद।