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"चारिम खण्‍ड / भाग 2 / बैजू मिश्र 'देहाती'" के अवतरणों में अंतर

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एम्‍हर एक दिन राम सियाकें
कहलनि बात पाबि एकान्त।
नरलीला किछु करब आब हम,
जगकें आवश्यक छैक नितान्त।
ताधरि हमर वियोग निवाहू,
जाए अग्निमे करू निवास।
माया भए प्रतिमूर्ति अहाँ केर,
रहती संग ने होउ उदास।
ई रहस्य नहि लखनहु जनलनि,
गेल छला आनय फल-फूल।
सीताजी जा आगि समैली,
कए श्रीरामक बात कबूल।
होइते अंत नरक ई लीला,
भेटब नहि किछु करू संदेह।
संग संग अएलहुँ हम कानन,
संग संग हम जायब गेह।
सूर्पनखा ओम्हर चलल, जाए कहल दसकंध,
बात सुनल देखल दसा, क्रोधे भए गेल अंध।
क्रोध विवेकक शत्रु अछि, लुप्त करए सद् ज्ञान,
बिसराबए सन्मार्गकें, कुपथ धराबए ध्यान।
वसीभूत भए क्रोध केर, सोचिकर्म बहुनीच,
दसकंधर आयल ततय, रहइत छल मारीच।
पहिलुक सभटा कहि कहल, करह कपट बिनु देरि,
पत्नीहरण करब ओकर, अपन बनायब चेरि।
पसहिने कांपल नाम सुनि, सुमिरि राम केर वाण,
सिद्धाश्रमक प्रहारमें कोना कऽ बचलै प्राण।
किन्तु रावणक हाथसँ, मरब ने होयत इष्ट,
रामक हाथें जौं मरब स्वर्गक पुरत अभीष्ट।
सोचि स्वर्ण मृग रूपमे, चंचल दनुज मारीच,
आयल ततय जतय छली, सीता विपिनक बीच।
एतए ओतए घूमए फिरए, स्वर्ण खाल छल अंग,
देखि सिया ललचा गेली, धैर्य भए गेलनि भंग।
कहल रामसँ लाउ ई, एकर चाम अछि नीक,
दुर्लभ अछि संसारमे, ई मृग अनुपम थीक।
पहिने टारल राम, पुनि, सीता केर हठ मानि,
चलला मृग मारए झटकि, तीर धनुषकें तानि।
मारल कठिन वाण राक्षसकें, सहि ने सकल त्यागल निज प्राण,
जगपति केर क्रोधक समक्षमे बलगरके जे पओलक त्राण।
मरितो मरितो मुदा ओ फेकरल कपटक जाल,
हा लक्ष्मण, हा लखन कहि, सियकें शंका देल कराल।
विचलित भए लक्ष्मणसँ कहलनि, जाउ शीघ्र देखू की भेल,
निश्चय दनुज प्रभूकें घेरल, क्षणहिमे की सऽ की भए गेल।
चिंता जुनिअहँ करू हे माते, हुनकरके किछु लेत बिगारि,
त्रिभुवन पति छथि लखन सुबोधल कालहु भागत निश्चय हारि।
सीता क्षोभ युक्त भऽ बजली, अहुँक मोन अछि हुनकर अंत,
बुझलहुँ अहाँ जगतकें लागल, हदयबीच जनु विषयुत तीर,
डाँरि पारि कहि गेला सियाकें पार करए नहि अहँक शरीर।
लक्ष्मण गला रामकें हेरए, रावण साधुक धए निज रूप,
आयल ततए सियासँ मागल, भीखिदिअऽ फल हैत अनूप।
कुटी जाए सीता लऽ अएगी,
कंदमूल फल भीखि निमित।
किन्तु डांरिकें पारक हित,
हुनके ने मानल कनियों चित्त।
रावण देखल जखन डांरिकें,
छल ओ भीषण अग्नि समान।
पार करब छल ओकर साध्य नहि,
कम्पित भेल ओकर छल प्राण।
बाजल नहि हम लेव अहाँ केर,
डांरिक बान्हल अछि ई भीख।
पार हैब तखनहि स्वीकारब,
धर्म शास्त्र देने छथि सीख।
सीता आकुल भेली हदयसँ,
उचित हैत नहि करब निराश।
बाहर आबि गेली डांरिक ओ,
कए लेलनि क्षन्नक विश्वास।
तखनहि दसमुख धएल रूप निज,
सीताकें रथ पर बैसाए।
गगन मार्गसँ चचल दुष्ट छल,
रथ केर गति अति तीव्र बनाए।
कनै छली सीता व्याकुल भए,
अबला छली भेलि निरूपाए।
गीध जटायु सुनल करूणा स्वर,
झपटल रावण पर तहँ आए।
खसल दसानन मूहँक बलपर,
पहिल बेर छल तेहन प्रहार।
दोसर बेर उठल पुनि सम्हरल,
पाँखि हरल तरूआरिक धार।
राम राम कहि भूपर खसला,
अति सैं कष्टक संग जटायु।
अबलक रक्षा नहि कए सकला,
बाधक बनलनि निज वृद्धायु।
विवस भेलि जा रहली सीता,
कतहुने कोनो बाट सुझाए।
देखि वानरक दल पर्वत पर,
किछु आभूषण देल खसाए।
एम्हर राम देखल लक्ष्मणकें,
कुटी छोड़ि छथि आबि रहल।
निश्चय कोनो भेल अछि घटना,
दुखमय शंका घेरि रहल।
अबिते निकट लखनसँ पूछल,
कुटी छोड़ि अयलहुँ की जानि।
पंचवटी माया नगरी अछि,
राक्षस सभक, चलू ई मानि।
लखन कहल नहि हमर दोष अछि,
सीता मां केर वाक्यक वाण।
वेधि देलक तन मनकें हमरा,
तें चलि अएलहुँ पाबए त्राण।
कुटी आबि देखल श्रीराम,
बिनु सीता जनु उजड़रल गाम।
झर झर दृगसँ बहबथि नीर,
सहज मनुज सम तजलनि धीर।
जनिक कृपा बिनु हिलय ने पात,
से देखबथि बहु विरह अघात।
लता वृक्षसँ पूछथि कानि,
कतए गेली सीता सज्ञानि।
पशु पक्षीसँ पूछथि राम,
कतए करै छथि सिया विश्रामं
राखथि जे त्रिभुवन केर ज्ञान,
से अबोध केर करबथि भान।
एहि विधि करइत राम विलाप,
चलला ताकए उरलए ताप।
किछुए आगाँमे छला, भू पर पड़ल जटायु।
राम चरण दरशनक हित, रखने प्राणक वायु।
गेला राम तहँ डेग बढ़ाए,
करूणाकर रस करूण जगाए।