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"वो अपने ही साये थे / अनुपमा पाठक" के अवतरणों में अंतर

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04:24, 28 नवम्बर 2015 के समय का अवतरण

इंसानों की बस्ती
पूरी की पूरी खाली थी...
उस जमी हुई भीड़ में
सब पराये थे...

आज वो
सब अजनबी थे...
कल जिनके अपनेपन पर
हम भरमाये थे...


काँप गया मन
जिन आहटों से...
देखा तो जाना
वो अपने ही साये थे...


मोड़ आ गया
चलते चलते...
बादल
बेतहाशा छाये थे...


भींगे हुए थे भीतर से आकंठ
और क्या भींगते
उस अनमनी सी बारिश में...
इससे पहले की बरसता आकाश
हम अपनी छत के नीचे
लौट आये थे... !!