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"सड़क की छाती पर चिपकी ज़िन्दगी ७ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर
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ये खाली पेट लड़ते हैं भूख से
सूखे गले प्यास से
बिन बिस्तर नींद से
बेखर रास्तों से
आंखें नीची किये हमारी गालियों से
इनकी जंग धूप से सीधे होती है
ये कतरा-कतरा छांव बांधते हैं अपने गमछे में
ये टूटने की हद तक टूटे बिखरे लोग
विभाजन रेखा के नीचे हैं
ये निहत्थे लड़ रहे हैं
ज़िन्दगी से।