"सड़क की छाती पर चिपकी ज़िन्दगी १८ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर
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टूटे परिदे पेड़ घायल
नदी के जि़स्म पर
आभासी पानी सा एक रंग
किनारे...पट्टियां बांधते
समय की चक्की में गोल-गोल घूम रहा
बादल, मौसम, आकाश, कुएं-बावड़ी की सूखी छाती पर
नवजात खोजता रहा जीवन का श्रोत
भूखा प्यासा समय लिख रहा कविता
रास्ते पर पड़ी बेहोश धूप
नन्हे कदमों की आहट भर साथ मुस्कराये
फिर कुम्भलये
रेत खाली करती रही मुठ्ठियां
रेखाएं किनारों पर लिखतीं रहीं जीवन दर्शन
घोसलों के गुलाबी चोंच कल दाने की खातिर उठाये थे मुंह
अब आह भर सांस से जूझ रहे
हाड़-हाड़ बुने गए स्वेटर की ठिठुरन से होकर
गुजर जाएंगी सर्दियां
गुजर जाते हैं ऐसे सफेद ख्याल भी
जब अँधेरे और काजल एक
साथ आंजते हैं आँख की किनारी पट्टियां
उसी लाइन से होती गुम-सुम मोती
हजार-हजार बार मरती है बेआवाज़
आसमान की इतनी बड़ी छतरी के नीचे
हम कितने रंगों से भीग जाते हैं...।