भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सड़क की छाती पर चिपकी ज़िन्दगी १८ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलजा पाठक |अनुवादक= |संग्रह=मैं ए...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(कोई अंतर नहीं)

11:17, 21 दिसम्बर 2015 का अवतरण

टूटे परि‹दे पेड़ ƒघायल
नदी के जि़स्म पर
आभासी पानी सा एक रंग
किनारे...पट्टियां बांधते
समय की चक्की में गोल-गोल ƒघूम रहा
बादल, मौसम, आकाश, कुएं-बावड़ी की सूखी छाती पर
नवजात खोजता रहा जीवन का Ÿश्रोत
भूखा Œप्यासा समय लिख रहा कविता

रास्ते पर पड़ी बेहोश धूप
नन्हे कदमों की आहट भर साथ मुस्कराये
फिर कुम्भलये
रेत खाली करती रही मुठ्ठियां
रेखाएं किनारों पर लिखतीं रहीं जीवन दर्शन
ƒघोसलों के गुलाबी चोंच कल दाने की खातिर उठाये थे मुंह

अब आह भर सांस से जूझ रहे
हाड़-हाड़ बुने गए स्वेटर की ठिठुरन से होकर
गुजर जाएंगी सर्दियां
गुजर जाते हैं ऐसे सफेद ख्याल भी
जब अँधेरे और काजल एक
साथ आंजते हैं आँख की किनारी पट्टियां
उसी लाइन से होती गुम-सुम मोती
हजार-हजार बार मरती है बेआवाज़
आसमान की इतनी बड़ी छतरी के नीचे
हम कितने रंगों से भीग जाते हैं...।