भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मैं जब भी लिखूंगी प्रेम ६ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलजा पाठक |अनुवादक= |संग्रह=मैं ए...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=शैलजा पाठक | |रचनाकार=शैलजा पाठक | ||
|अनुवादक= | |अनुवादक= | ||
− | |संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी | + | |संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी / शैलजा पाठक |
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} |
15:08, 21 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण
मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
काली स्लेट पर बना मोर
पंख खोल कर नाचेगा
कागज़ की बनी नाव समंदर को चीरती
चांद की बुढिय़ा तक पहुंच जायेगी
उसे अपने साथ ले आएगी
पुराने कजरौटे में रखा काजल
कजरी की सूनी आंखों में सजेगा
विदाई का दिन नजदीक आ शहनाई सा बजेगा
कजरी तेरह साल बाद अपने ससुराल जाएगी
मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
आंगन में गेहूं सुखाती अम्मा
एक चिडिय़ा को कजरी के नाम से बुलाएगी
चिडिय़ा चहचहाती कलेजे से लग जायेगी
अम्मा चूमेगी कजरी को
और कजरी...
किसी और की हो जाएगी।