भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मैं जब भी लिखूंगी प्रेम ८ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलजा पाठक |अनुवादक= |संग्रह=मैं ए...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=शैलजा पाठक
 
|रचनाकार=शैलजा पाठक
 
|अनुवादक=
 
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
+
|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी / शैलजा पाठक
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}

15:09, 21 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण

सबसे भीड़ भरे चौराहे पर एक रोज़
मिलना चाहती है लड़की अपने प्रेमी से
और चूम लेना चाहती है उसके होंठ ये कह कर-
डरती नही हैं लड़कियां
कस लेंगी तुमको अपनी बांहों में
तुम छूटना चाहो भी न
तो सहज न होगा तुम्हारे लिए

लड़कियां भीड़ से नहीं डरती
न डरती हैं Œयार से
लेकिन वो जानती हैं
सुकून के पलों को सहेजने की जिम्मेदारी उनकी है

वो बुलाती हैं तुम्हें बगीचे के उस निर्जन बेंच पर
एक बार मिलने के लिए
जबकि इस एकांत से ƒघबराती हैं लड़कियां
अकेले में भीड़ और भीड़ में अकेली लड़कियां
भरोसा करना चाहती हैं तुम पर
कि तुम्हारे Œप्यार में किया गया
इनका कोई भी अनोखा प्रयोग तुम्हारी खातिर था

एक बार एक लड़की उछालना चाहती है
भीड़ भरे ट्रेन में एक चुम्बन
जिसे पकड़ते हुए
तुम लडख़ड़ाओ, संभल जाओ, मुस्कराओ
और ट्रेन की भीड़
तुम्हारी आंखों में खो जाए

तुम अकेले रहो कुछ देर
मेरी मिठास के साथ
और मैं पलट जाऊं
अपनी आंखों में एक गुलाबी रंग लिए

एक बार
भीड़ वाले चौराहे पर
मैं मिलना चाहती हूं तुम्हें।