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"सड़क की छाती पर चिपकी ज़िन्दगी १ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर
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दिन की पीठ पर | दिन की पीठ पर |
15:13, 21 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण
वक्त फिर लद गया है
दिन की पीठ पर
जैसे सवार होते हैं बच्चे
पिता की पीठ पर
अब जिद है, चलना पड़ेगा
घाव जितना भी हो सहना पड़ेगा
वक्त करवाएगा
अपनी मनमानी
तुम घोड़ा बनो
पीओ पानी
दिन घिसटता रहेगा
आज भी आहिस्ता-आहिस्ता
शाम होते वक्त मुस्कराता हुआ
कूद जायेगा
देगा गालों पर मुस्कराता हुआ एक चुम्बन
एक जल्दी वाला आलिंगन
दिन डूब जायेगा
अगले दिन वक्त
कोई और खेल दिखायेगा...।