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"सड़क की छाती पर चिपकी ज़िन्दगी ६ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर

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15:14, 21 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण

हम उतना ही सुनते हैं
जितने हमारे अपनों की आवाज़ें हैं
हम वही देखते हैं
जो हम चाहते हैं हमारे लिए अच्छा है

हम अपनी ही थाली पर चील सा झपटते हैं
हम अपने आस पास उठाते रहते हैं दीवारें
हम सुरक्षित होने की हद तक
असुरक्षित रहते हैं

हम रोते हैं तो दबा लेते हैं अपना मुंह
हम मुस्कराहट को चिपका कर रखते हैं
जाते हुए बाहर
हम बच्चों की क़िताबों के बीच
गुलाब नहीं सूखे दरख्तों की जली राख रखते हैं
हम ज़िन्दगी का कमाल का हिसाब रखते हैं

हम आंगन में रोप आये हैं कंटीले पौधों की बाड़ें
जानवरों की शक्लें बदली हुई हैं
मिजाज ज़माने का बदल गया है
हम देश की सीमा पर खड़े होकर
गाते हैं चैन से सोने के गीत

हम धरती पर आखिरी बार
आदमी के रूप में पहचाने जायेंगे
हम असली रंग के नहीं रहे अब
हमारी फसलें बर्बाद हो चुकी हैं
मुरदों की कब्रों पर सरकार की व्यवस्था चल रही है
ये देश को बचाने के लिए
उसे एक बार और झोंक देंगे आग में
इनके पास आग से बचने के कपड़े हैं

हमारी आंख से धरती आखिरी बार देखी जायेगी
जानवरों की स्लेट पर धरती का चित्र है
वो सब मुंह में इतिहास को चबा रहे हैं ।