भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मेरा दर्पण / अवतार एनगिल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अवतार एनगिल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem>साम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

11:39, 27 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण

सामना होते ही
दर्पण मेरा हाल-चाल पूछता है
फिर धीरे से कहता है
इधर बहुत गुस्सैल दिखने लगे हो
माथे की दोनों खड़ी सिलवटें
अब तो त्रिशूल बन चलीं है

अरे, यह झूट-मूठ मुस्कराने की हिमाकत छोड़ो
...आते-आते ही आती है, मुस्कराने की कला !

बड़े-बड़े आये
हम से नहीं छिप पाए
फिर तुम कौन खेत की मूली हो
रंग पोत कर उम्र छिपाते हो
किसे बनाते हो ?

तिलमिलाओ मत !
मुझे तोड़ने की मूर्खता भी मत करना
टूटते ही
तुम्हारे सभी मुखौटे भेदकर
पारे की तरह
भीतर तक छितरा जाऊँगा

कोई मरहम
भर नहीं पाती
मेरे दिए घाव !

किरच-किरच धंसता हूँ
तुम सों पर हंसता हूँ !
दर्पण हूँ, दर्प चूर करता हूँ
टूट भी जाऊं तो
सच के लिये मरता हूँ ।