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"लिखता हूँ प्रेम / प्रदीप मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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+ | लिखता हूँ प्रेम | ||
+ | और ख़त्म हो जाती है स्याही । | ||
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16:13, 2 जनवरी 2016 के समय का अवतरण
लिखता हूँ प्रेम
सूरज की नन्हीं किरणें
उतर आयीं हैं चेहरों पर
दरारों से आती हवा
फेफड़ों में ताकत की तरह भर रही है
खेतों की तरफ जा रहे हैं किसान
त्यौहारों की तैयारी कर रहा है गाँव
कारखानों से चू रहा है पसीना
चूल्हों को इतमिनान है
अगले दिन की रोटी का
टहल कर
घर लौट रहे हैं पिताजी
सुबह की चाय के साथ अख़बार
बेहतर दिनों के स्वाद की तरह लग रहा है
कलम के आस-पास जुटे हुए अक्षर
प्रेम कविता के लिए
आग्रह कर रहे है
लिखता हूँ प्रेम
और ख़त्म हो जाती है स्याही ।