भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रात भर चाँद को यूँ रिझाते रहे / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
 
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=  
+
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
}}{{KKAnthologyChand}}
+
}}
{{KKCatKavita}}
+
 
{{KKCatGhazal}}
 
{{KKCatGhazal}}
 
<poem>
 
<poem>
पंक्ति 30: पंक्ति 29:
 
जब से यादें तेरी रौशनाई बनीं
 
जब से यादें तेरी रौशनाई बनीं
 
शेर सारे मेरे जगमगाते रहे
 
शेर सारे मेरे जगमगाते रहे
</poem>
 

19:57, 10 फ़रवरी 2016 का अवतरण

रात भर चाँद को यूँ रिझाते रहे
उनके हाथों का कंगन घुमाते रहे

इक विरह की अगन में सुलगते बदन
करवटों में ही मल्हार गाते रहे

टीस, आवारगी, रतजगे, बेबसी
नाम कर मेरे, वो मुस्कुराते रहे

शेर जुड़ते गये, इक गज़ल बन गयी
काफ़िया, काफ़िया वो लुभाते रहे

टौफियाँ, कुल्फियाँ, कौफी के जायके
बारहा तुम हमें याद आते रहे

कोहरे से लिपट कर धुँआ जब उठा
शौल में सिमटे दिन थरथराते रहे

मैं पिघलता रहा मोम-सा उम्र भर
इक सिरे से मुझे वो जलाते रहे

जब से यादें तेरी रौशनाई बनीं
शेर सारे मेरे जगमगाते रहे