"उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैं / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गौतम राजरिशी |संग्रह=पाल ले इक रो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
20:27, 11 फ़रवरी 2016 के समय का अवतरण
उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैं
बटोही रास्ते खो कर भी लें बलाएँ हैं
धड़क उठा जो ये दिल उनके देखने भर से
कहो तो इसमें भला क्या मेरी ख़ताएँ हैं
खुला है भेद सियासत का जब से, तो जाना
गुज़ारिशों में छुपी कैसी इल्तज़ाएँ हैं
उधर से आये हो, कुछ ज़िक्र उनका भी तो करो
सुना है, उनके ही दम से वहाँ फ़िज़ाएँ हैं
तेरे ही नाम का अब आसरा है एक मेरा
हक़ीम ने जो दीं, सब बेअसर दवाएँ हैं
सिखाये है वो हमें तौर कुछ मुहब्बत के
शजर के शाख से लिपटी ये जो लताएँ हैं
भटकती फिरती है पीढ़ी जुलूसों-नारों में
गुनाहगार हुईं शह्र की हवाएँ हैं
कराहती है ज़मीं उजली बारिशों के लिये
फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं
उठी थी हूक कोई, उठ के इक ग़ज़ल जो बनी
जुनूँ है कुछ मेरा तो उनकी कुछ अदाएँ
(अभिनव प्रयास, जुलाई-सितम्बर 2013)