भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सच के लिए तूने उठाया सर, भले कुछ देर से / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गौतम राजरिशी |संग्रह=पाल ले इक रो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
20:29, 12 फ़रवरी 2016 के समय का अवतरण
सच के लिए तूने उठाया सर, भले कुछ देर से
तेरी तरफ भी आयेगा पत्थर भले कुछ देर से
माना कि बढ़ता जा रहा है काफ़िला फिर झूठ का
जीतेगा आखिर सच का ही लश्कर, भले कुछ देर से
नन्हा परिंदा टहनियों पर जो फुदकता है अभी
छूयेगा इक दिन उड़ के वो अम्बर, भले कुछ देर से
तौहीन थोड़ी-सी हवा की हो गई तो क्या हुआ
जल तो उठा दीपक मेरा बुझ कर, भले कुछ देर से
हो हौसला, तो डूबती कश्ती को भी साहिल तलक
ले जाता है उम्मीद का सागर, भले कुछ देर से
पल भर का इतराना है काले बादलों का, देखना
निकलेगा सूरज चीर कर बाहर, भले कुछ देर से
तन्हा अभी बेशक है तू, घबड़ा न ऐ मिसरे ! ज़रा
बाँधेगा तुझ को शेर में शायर, भले कुछ देर से
(समावर्तन, सितम्बर 2013)