भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ढीठ सूरज बादलों को मुँह चिढ़ाने के लिए / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गौतम राजरिशी |संग्रह=पाल ले इक रो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

20:33, 12 फ़रवरी 2016 के समय का अवतरण

ढ़ीठ सूरज बादलों को मुँह चिढ़ाने के लिये
चल पड़ा है, देख, बारिश में नहाने के लिये

कुछ सहमती, कुछ झिझकती, गुनगुनाती पौ फटी
सोये जग को भैरवी की धुन सुनाने के लिये

घोंसले में अपने गौरेया है बैठी सोचती
जाये वो किस बाग़ में अमरूद खाने के लिये

पर्वतों पर बर्फ़ के फाहे ठिठुरने जब लगे
चुपके-से घाटी में फिसले खिलखिलाने के लिये

बेहया-सी दोपहर ठिठकी हुई है अब तलक
और ज़िद्दी शाम है बेचैन आने के लिये

नकचढ़ी इक दूब दिन भर धूप में ऐंठी रही
रात उतरी शबनमी उसको रिझाने के लिये

चाँद को टेढ़ा किये मुँह देखकर तारे सभी
आ गये ठुड्ढ़ी उठाये टिमटिमाने के लिये





(लफ़्ज़ सितम्बर-नवम्बर 2011, समावर्तन जुलाई 2014 "रेखांकित")