भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जब तौलिये से कसमसाकर ज़ुल्फ़ उसकी खुल गई / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गौतम राजरिशी |संग्रह=पाल ले इक रो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
21:02, 6 मार्च 2016 के समय का अवतरण
जब तौलिये से कसमसाकर ज़ुल्फ़ उसकी खुल गयी
फिर बालकोनी में हमारे झूम कर बारिश गिरी
करवट बदल कर सो गया था बिस्तरा फिर नींद में
बस आह भरती रह गयी प्याली अकेली चाय की
इक गुनगुनी-सी सुब्ह शावर में नहा कर देर तक
बाहर जब आई, सुगबुगा कर धूप छत पर जग उठी
उलझी हुई थी जब रसोई सेंकने में रोटियाँ
सिगरेट के कश ले रही थी बैठकी औंधी पड़ी
इक फोन टेबल पर रखा बजता रहा, बजता रहा
उट्ठी नहीं वो 'दोपहर' बैठी रही बस ऊँघती
लौटा नहीं है दिन अभी तक आज ऑफिस से, इधर
बैठी हुई है शाम ड्योढ़ी पर ज़रा बेचैन-सी
क्यूँ खिलखिला कर हँस पड़ा झूला भला वो लॉन का
आई ज़रा जब झूलने को एक नन्ही-सी परी
(अभिनव प्रयास, जुलाई-सितम्बर 2012)