भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"खुशबू वतन की / देवी नांगरानी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवी नांगरानी }} बादे-सहर वतन की, चंदन सी आ रही है <br> याद...)
 
(कोई अंतर नहीं)

03:23, 26 फ़रवरी 2008 के समय का अवतरण


बादे-सहर वतन की, चंदन सी आ रही है
यादों के पालने में मुझको झुला रही है।

ये जान कर भी अरमां होते नहीं हैं पूरे
पलकों पे ख़्वाब ‘देवी’ फिर भी सजा रही है।

कोई कमी नहीं है हमको मिला है सब कुछ
दूरी मगर वतन से मुझको रुला रही है।

पत्थर का शहर है ये, पत्थर के आदमी भी
बस ख़ामशी ये रिश्ते, सब से निभा रही है।

शादाब मेरे दिल में इक याद है वतन की
तेरी भी याद उसमें, घुलमिल के आ रही है।

‘देवी’ महक है इसमें, मिट्टी की सौंधी सौंधी
मेरे वतन की खुशबू, केसर लुटा रही है।