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"शंखनाद / भारत भाग्य विधाता / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'" के अवतरणों में अंतर

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भारत  जे मुक्ति के  मानस, वहीं   अन्हरिया   टापे   टुप,
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मालवीय के बी. एच. यू. के, नींव महोत्सव  के  हौ रंग,
मुक्ति  लेली तरसै  भारत दुबड़ी-पर्वत    चुप-चुप-चुप
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राजा-रजबाड़ा के  हाकिम, जैमेॅ   कि   अंग्रेजो   संग
  
अंग्रेजोॅ  के  राज अमावश, जीवन जुगनू  रं  भुक-भुक
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सबने सब कुछ  बहुत कहलकै, पर गाँधी के बात अलग,
जे भारत  प्राणोॅ के मालिक, ओकरे प्राण ठो हुक-हुक-हुक।
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सुनी-सुनी के   राजा-रैयत, होवेॅ  लागलै  अलग-थलग ।
  
साल अठारह सौ  उनहत्तर, अक्टूबर   के   दोसरोॅ  दिन
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पर  गाँधी के राष्ट्र प्रेम के सुर उठलै   तेॅ   ठठले गेलै,
जागी उठलै अन्धकार  पर एक किरण कण गिन-गिन-गिन।
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चकित अतिथि  भीतरे-भीतर, माननीयो आतंकित छेलै ।
  
पोरबन्दर  पर   उतरी   ऐलै, भारत   केरोॅ   भाग्य   विमल
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भारत    मेॅ   अंग्रेजी   सत्ता, के   खुललै   सब   चाल,
के  जानै   छेलै ई  तखनी यहा बरसतै होय बादल
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आरो एकरोॅ शासन   मेॅ, की  छै भारत  के हाल
  
पढ़ी-लिखी  परदेशोॅ   मेॅ  जे लौटी    ऐलै  घर-स्वदेश,
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की  छै   राजा-धनपतियो  के, हीन-दीन          करतूत,
ओकरोॅ आँखी मेॅ  नाँचै बस, भारत केरोॅ  दुखिया  भेष
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शासन आगू चुप हेनोॅ ज्यों, बच्चा    देखेॅ    भूत
  
सब  कुछ छोड़ी छाड़ी योगी, स्वदेशोॅ    के  कामोॅ   लेॅ,
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की नै कहलकै गाँधी जी नेॅ, के दोषी   ठो   बचलै ?
घूमेॅ लगलै गाँव-गाँव   मेॅ, भारत के  यश-नामोॅ   लेॅ
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केकरो तेॅ अच्छा ही लागलै, केकरो कुछ  नै  पचलै ।
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कहते-कहते  यहू  कहलकै, जों  अंग्रेज  नै  हित   मेॅ,
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तेॅ छोड़़ौ  ई  देश अभी ही, रोकौ  राज  तुरत  मेॅ ।
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एक बार  जे  गाँधी  जी के, फुटलै  मन  के  आग,
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जलतै रहलै आखिर तक ऊ, बिना    जलैलै  बाग ।
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बापू  के  स्वर  गूंजेॅ  लगलै, प्रान्त-प्रान्त    के    बीच,
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होलै-होले   सेॅ स्वराज  भी, ऐलै    बहुत    नगीच
  
भारत के हालत देखी  केॅ, थमै नै  गाँधी  जी  के  लोर,
 
एक यही बस  मन मेॅ उपजै, कहिया  होतै एकरोॅ भोर ।
 
 
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22:27, 10 जून 2016 के समय का अवतरण

मालवीय के बी. एच. यू. के, नींव महोत्सव के हौ रंग,
राजा-रजबाड़ा के हाकिम, जैमेॅ कि अंग्रेजो संग ।

सबने सब कुछ बहुत कहलकै, पर गाँधी के बात अलग,
सुनी-सुनी के राजा-रैयत, होवेॅ लागलै अलग-थलग ।

पर गाँधी के राष्ट्र प्रेम के सुर उठलै तेॅ ठठले गेलै,
चकित अतिथि भीतरे-भीतर, माननीयो आतंकित छेलै ।

भारत मेॅ अंग्रेजी सत्ता, के खुललै सब चाल,
आरो एकरोॅ शासन मेॅ, की छै भारत के हाल ।

की छै राजा-धनपतियो के, हीन-दीन करतूत,
शासन आगू चुप हेनोॅ ज्यों, बच्चा देखेॅ भूत ।

की नै कहलकै गाँधी जी नेॅ, के दोषी ठो बचलै ?
केकरो तेॅ अच्छा ही लागलै, केकरो कुछ नै पचलै ।

कहते-कहते यहू कहलकै, जों अंग्रेज नै हित मेॅ,
तेॅ छोड़़ौ ई देश अभी ही, रोकौ राज तुरत मेॅ ।

एक बार जे गाँधी जी के, फुटलै मन के आग,
जलतै रहलै आखिर तक ऊ, बिना जलैलै बाग ।

बापू के स्वर गूंजेॅ लगलै, प्रान्त-प्रान्त के बीच,
होलै-होले सेॅ स्वराज भी, ऐलै बहुत नगीच ।