"सेल्युलर जेल / एकांत श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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मैं जेल की नींव का | मैं जेल की नींव का | ||
पत्थर बोल रहा हूँ | पत्थर बोल रहा हूँ | ||
− | मैं-जो समुद्र तट का पत्थर था | + | मैं -- जो समुद्र-तट का पत्थर था |
तब लहरें मुझे नहलाती थीं | तब लहरें मुझे नहलाती थीं | ||
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तब मैं प्यासा पत्थर नहीं था | तब मैं प्यासा पत्थर नहीं था | ||
− | जेल का पत्थर और समुद्र तट का पत्थर | + | जेल का पत्थर और समुद्र-तट का पत्थर |
दो बिछुड़े हुए भाई हैं | दो बिछुड़े हुए भाई हैं | ||
एक पानी में भीगता है | एक पानी में भीगता है | ||
− | दूसरा | + | दूसरा ख़ून में |
मैं पत्थर हूँ फिर भी | मैं पत्थर हूँ फिर भी | ||
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चमकती है; आज़ादी है | चमकती है; आज़ादी है | ||
मैं पत्थर हूँ लेकिन लहरों ने | मैं पत्थर हूँ लेकिन लहरों ने | ||
− | मुझे भी एक दिल | + | मुझे भी एक दिल बख़्शा है |
जो धड़कता है समुद्र के लिए | जो धड़कता है समुद्र के लिए | ||
− | + | आज़ाद हवा के लिए | |
और बुलबुल के गीत के लिए | और बुलबुल के गीत के लिए | ||
− | मैं | + | मैं गुज़रे कल का रक्त हूँ |
वर्तमान की धमनियों में | वर्तमान की धमनियों में | ||
उछाल मारता हुआ | उछाल मारता हुआ | ||
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जहाँ मात्र एक खिड़की छोटी-सी | जहाँ मात्र एक खिड़की छोटी-सी | ||
− | + | सलाख़ों वाला दरवाजा | |
− | + | स्वतन्त्रता सेनानियों के घावों | |
और दर्द का मैं गवाह हूँ | और दर्द का मैं गवाह हूँ | ||
− | 'इंकलाब | + | 'इंकलाब ज़िन्दाबाद' के नारे |
जो मुझे हिला देते थे | जो मुझे हिला देते थे | ||
उनके हौसले जो मुझसे भी | उनके हौसले जो मुझसे भी | ||
पंक्ति 59: | पंक्ति 59: | ||
हौसले टूटते न थे | हौसले टूटते न थे | ||
घोड़ों की टापों | घोड़ों की टापों | ||
− | ज़ंजीरों की | + | ज़ंजीरों की आवाज़ों |
और कोड़ों की मार के बीच | और कोड़ों की मार के बीच | ||
भूख और घाव और रक्त और दर्द के | भूख और घाव और रक्त और दर्द के | ||
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तो यह सपना था | तो यह सपना था | ||
सपना आज़ादी का | सपना आज़ादी का | ||
− | और यह कैसे | + | और यह कैसे अँट सकता था |
तेरह बाइ सात की काल कोठरी में | तेरह बाइ सात की काल कोठरी में | ||
जिसकी जड़ें | जिसकी जड़ें | ||
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और क्या थी यह आज़ादी | और क्या थी यह आज़ादी | ||
− | क्या यह समुद्र में | + | क्या यह समुद्र में उड़ने वाली |
मछली थी नीले रंग की | मछली थी नीले रंग की | ||
या तट का मूंगा लाल? | या तट का मूंगा लाल? | ||
क्या थी ये आज़ादी | क्या थी ये आज़ादी | ||
− | जिसके | + | जिसके लिए ये लोग |
अपना सब कुछ छोड़कर | अपना सब कुछ छोड़कर | ||
कूद पड़े थे आग में | कूद पड़े थे आग में | ||
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पागल हो सकता है कोई भी | पागल हो सकता है कोई भी | ||
शेर अली तुम कैसे फटकार कर | शेर अली तुम कैसे फटकार कर | ||
− | + | गरज़ती आवाज़ में हाज़िरी | |
− | देते थे - ' | + | देते थे -- 'हाज़िर |
− | वीर सावरकर की पचास साल | + | वीर सावरकर की पचास साल क़ैद की सज़ा |
मियाद के पूरी होने के पहले | मियाद के पूरी होने के पहले | ||
पूरी हुई गुलामी की लम्बी उम्र | पूरी हुई गुलामी की लम्बी उम्र | ||
जेलर! तुम भी तो स्ट्रेचर पर ले जाए गए | जेलर! तुम भी तो स्ट्रेचर पर ले जाए गए | ||
− | अपने | + | अपने अन्तिम दिनों में |
तुम भी तो मरे कलकत्ता में | तुम भी तो मरे कलकत्ता में | ||
अपने भी स्वदेश से | अपने भी स्वदेश से | ||
बहुत-बहुत दूर | बहुत-बहुत दूर | ||
जो दूसरों का देश छीनता है | जो दूसरों का देश छीनता है | ||
− | चाँद की तरह | + | चाँद की तरह असम्भव हो जाता है |
उसका भी स्वदेश | उसका भी स्वदेश | ||
ओ सच्चे साथी भगत सिंह के | ओ सच्चे साथी भगत सिंह के | ||
मेरे सिंह! मेरे महावीर | मेरे सिंह! मेरे महावीर | ||
− | तुम भी तो झुके नहीं | + | तुम भी तो झुके नहीं अन्त तक |
− | + | तोड़ने तुम्हारी भूख हड़ताल | |
आतताई जेलर ने डाली | आतताई जेलर ने डाली | ||
− | + | ज़बर्दस्ती नली तुम्हारे मुँह में | |
पिलाने दूध | पिलाने दूध | ||
जो पेट की जगह | जो पेट की जगह | ||
पंक्ति 127: | पंक्ति 127: | ||
जेल की हवा | जेल की हवा | ||
ऊपर उठती है तो आकाश का आईना | ऊपर उठती है तो आकाश का आईना | ||
− | + | चटख़ जाता है | |
आज़ादी तारे की तरह टूटकर | आज़ादी तारे की तरह टूटकर | ||
गिरती है नीचे धरती पर | गिरती है नीचे धरती पर | ||
पंक्ति 135: | पंक्ति 135: | ||
गर्मी और पसीना | गर्मी और पसीना | ||
घुटन और प्यास | घुटन और प्यास | ||
− | ये वो धरती है | + | ये वो धरती है जहाँ हम मरते हैं |
और बार-बार पैदा होते हैं | और बार-बार पैदा होते हैं | ||
− | जी हाँ! | + | जी हाँ ! |
और हमारी गिनती करने का | और हमारी गिनती करने का | ||
कोई अर्थ नहीं | कोई अर्थ नहीं | ||
− | हमने बस अपने हाथ | + | हमने बस अपने हाथ उठाए |
− | किसी के आगे | + | किसी के आगे फैलाए नहीं |
और ये आवाज़ें | और ये आवाज़ें | ||
पंक्ति 149: | पंक्ति 149: | ||
अब भी जिनकी प्रतिध्वनियाँ | अब भी जिनकी प्रतिध्वनियाँ | ||
भटक रही हैं | भटक रही हैं | ||
− | क्या तुमने कभी सोचा है- | + | क्या तुमने कभी सोचा है -- |
− | कैसे बनी | + | कैसे बनी अन्दमान में |
− | समुद्र की आवाज़! | + | समुद्र की आवाज़ ! |
और क्या कभी बन सकती है | और क्या कभी बन सकती है | ||
पंक्ति 176: | पंक्ति 176: | ||
या इराक को | या इराक को | ||
वियतनाम को जलते देखो | वियतनाम को जलते देखो | ||
− | या | + | या फ़िलिस्तीन को |
देश क्या वन की तरह होते हैं | देश क्या वन की तरह होते हैं | ||
जिनका जलना एक जैसा होता है! | जिनका जलना एक जैसा होता है! | ||
पंक्ति 183: | पंक्ति 183: | ||
रोटी की तरह सिंकती है आज़ादी | रोटी की तरह सिंकती है आज़ादी | ||
− | + | बनफ़शे बाहर मैदान में फूलते थे | |
और भीतर जेल में | और भीतर जेल में | ||
− | आती थी उनकी | + | आती थी उनकी ख़ुशबू |
− | कि | + | कि ख़ुशबुओं की कोई जेल नहीं होती |
वे लाती हैं अपने साथ | वे लाती हैं अपने साथ | ||
धरती की महक भी | धरती की महक भी | ||
पंक्ति 192: | पंक्ति 192: | ||
'कैसे तोड़ेंगे हम दीवार सेल्युलर की | 'कैसे तोड़ेंगे हम दीवार सेल्युलर की | ||
कैसे लाघेंगे समन्दर | कैसे लाघेंगे समन्दर | ||
− | हम | + | हम परिन्दे तो नहीं' |
− | 'तब हम | + | 'तब हम गाएँगे ज़ोर-ज़ोर |
− | हम | + | हम गाएँगे |
और हमारे गाने की आवाज़ | और हमारे गाने की आवाज़ | ||
परिन्दों की तरह उड़कर | परिन्दों की तरह उड़कर | ||
पंक्ति 209: | पंक्ति 209: | ||
अगर जीने को मिले | अगर जीने को मिले | ||
एक मुकम्मल दिन... | एक मुकम्मल दिन... | ||
− | मैं समुद्र में | + | मैं समुद्र में उड़ने वाली |
नीली मछली के गीत गाऊँगा... | नीली मछली के गीत गाऊँगा... | ||
और दो समुन्दरों के बीच | और दो समुन्दरों के बीच | ||
एक नन्हें द्वीप जितनी | एक नन्हें द्वीप जितनी | ||
नींद लूँगा | नींद लूँगा | ||
− | मेरे सपनों की | + | मेरे सपनों की ख़ुशबू फैल जाएगी |
पूरे महाद्वीप में | पूरे महाद्वीप में | ||
− | जैसे वन तुलसी की | + | जैसे वन तुलसी की गन्ध |
− | कोई रोक नहीं | + | कोई रोक नहीं पाएगा उसे |
नहीं; कोई सलाख नहीं | नहीं; कोई सलाख नहीं | ||
कोई सेल्युलर जेल नहीं...' | कोई सेल्युलर जेल नहीं...' | ||
पंक्ति 223: | पंक्ति 223: | ||
बाहर घरों में कैलेण्डर फडफ़ड़ाते हैं | बाहर घरों में कैलेण्डर फडफ़ड़ाते हैं | ||
मगर जेल में | मगर जेल में | ||
− | + | तारीख़ें कोई नहीं गिनता | |
− | + | तारीख़ें रक्त में सनी हुईं | |
लिखी हुईं यातना की स्याही से | लिखी हुईं यातना की स्याही से | ||
घायल परिन्दों-सी | घायल परिन्दों-सी | ||
− | फडफ़ड़ाती | + | फडफ़ड़ाती तारीख़ें |
पछाड़ खाते समन्दर-सी | पछाड़ खाते समन्दर-सी | ||
साहूकार रुपए गिनता है | साहूकार रुपए गिनता है | ||
पंक्ति 233: | पंक्ति 233: | ||
गड़ेरिया भेड़ों को | गड़ेरिया भेड़ों को | ||
गोधूलि बेला में | गोधूलि बेला में | ||
− | मगर | + | मगर तारीख़ें कोई नहीं गिनता |
जेल में | जेल में | ||
− | जैसे नरगिस और सूरजमुखी में | + | जैसे नरगिस और सूरजमुखी में फ़र्क है |
− | + | फ़र्क है 'हाँ' और 'ना' में | |
− | जब तुम कहते हो - हाँ | + | जब तुम कहते हो -- हाँ |
तब केंचुए में बदल जाते हो | तब केंचुए में बदल जाते हो | ||
वह केवल 'ना' है | वह केवल 'ना' है | ||
जो तुम्हें आदमी बनाए रखता है | जो तुम्हें आदमी बनाए रखता है | ||
− | कोई दीवार पर लिखता है-ना | + | कोई दीवार पर लिखता है -- ना |
कोई पत्थर पर | कोई पत्थर पर | ||
− | कोई | + | कोई चीख़ता है भरी सभा में |
− | हुकूमत के आगे-ना | + | हुकूमत के आगे -- ना |
और लहू लाल से सुर्ख हो जाता है | और लहू लाल से सुर्ख हो जाता है | ||
− | संसार से जो | + | संसार से जो चीज़ ग़ायब हो रही है |
वह 'ना' है | वह 'ना' है | ||
जो आदमी की आत्मा है | जो आदमी की आत्मा है | ||
तुम जब प्रतिरोध करते हो | तुम जब प्रतिरोध करते हो | ||
− | तो कई | + | तो कई पगडण्डियाँ |
− | फूटती हैं | + | फूटती हैं सफ़र के लिए |
और घास में फूल आने लगते हैं | और घास में फूल आने लगते हैं | ||
− | + | वसन्त की पहली चिट्ठियों की तरह | |
प्रतिरोध भी एक आईना है | प्रतिरोध भी एक आईना है | ||
पंक्ति 265: | पंक्ति 265: | ||
बीत गया '47 कभी का | बीत गया '47 कभी का | ||
अगस्त का सूर्य था लाल | अगस्त का सूर्य था लाल | ||
− | हमारे | + | हमारे ख़ून की तरह |
और वह बँधा नहीं था | और वह बँधा नहीं था | ||
− | + | बेड़ियों में | |
− | ओ मेरे देश! मेरे भारत! | + | ओ मेरे देश ! मेरे भारत ! |
लेकिन देखो तो | लेकिन देखो तो | ||
अब भी | अब भी | ||
हाँ; अब भी | हाँ; अब भी | ||
− | हवा में ये कैसी | + | हवा में ये कैसी गन्ध है |
− | + | गरज़ता है अब भी समुद्र | |
पछाड़ खाता है तट के पत्थरों पर | पछाड़ खाता है तट के पत्थरों पर | ||
और यह बहुत अज़ीब है | और यह बहुत अज़ीब है | ||
कि हवा में | कि हवा में | ||
− | अब भी सेल्युलर जेल की | + | अब भी सेल्युलर जेल की गन्ध है |
तेरह बाइ सात की | तेरह बाइ सात की | ||
− | काल-कोठरी की फिंटी हुई | + | काल-कोठरी की फिंटी हुई गन्ध |
और उड़ते हुए | और उड़ते हुए | ||
− | + | सफ़ेद कबूतरों के पंखों पर रक्त के धब्बे | |
बस दीवार ख़त्म होती है यहाँ | बस दीवार ख़त्म होती है यहाँ | ||
सेल्युलर जेल की | सेल्युलर जेल की | ||
− | सेल्युलर जेल | + | सेल्युलर जेल ख़त्म नहीं होती। |
</poem> | </poem> |
12:13, 6 जुलाई 2016 के समय का अवतरण
सेल्युलर जेल के गलियारों में घूमते हुए, तेरह बाइ सात की काल कोठरियों में साँस लेते हुए मैं वही नहीं रह गया था; जैसा गया था। मेरी साँसों में कितनी उखड़ी हुई साँसों की गर्म महक घुलने लगी। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान काला पानी बना पोर्टब्लेयर और इसमें बनाई गई सेल्युलर जेल की कहानी ऐतिहासिक और रक्तरंजित है। गुलामियाँ ख़त्म होती हैं और पुन: आरम्भ भी होती हैं। कितनी आज़ादियाँ गुलामी की अदृश्य बेड़ियों में आज भी जकड़ी हुई हैं। इक्कीसवीं सदी में पहुँची हुई इस उत्तर आधुनिक सभ्यता में, उत्तर पूँजीवाद में देखते-देखते सेल्युलर जेल एक प्रतीक में बदलने लगती है। इतिहास का रक्त वर्तमान की चौखट तक बहता चला आता है।
--एकान्त श्रीवास्तव
मैं जेल की नींव का
पत्थर बोल रहा हूँ
मैं -- जो समुद्र-तट का पत्थर था
तब लहरें मुझे नहलाती थीं
और बुलबुल मुझ पर बैठकर
ऋतु का गीत गाती थी
तब मैं प्यासा पत्थर नहीं था
जेल का पत्थर और समुद्र-तट का पत्थर
दो बिछुड़े हुए भाई हैं
एक पानी में भीगता है
दूसरा ख़ून में
मैं पत्थर हूँ फिर भी
किसी चीज़ के लिए ललकता हूँ
और वह चीज़
जो भादों की भीगी-काली रात में
जुगनू की तरह
चमकती है; आज़ादी है
मैं पत्थर हूँ लेकिन लहरों ने
मुझे भी एक दिल बख़्शा है
जो धड़कता है समुद्र के लिए
आज़ाद हवा के लिए
और बुलबुल के गीत के लिए
मैं गुज़रे कल का रक्त हूँ
वर्तमान की धमनियों में
उछाल मारता हुआ
मुझे तोड़ो
ताकि हीरे की तरह चमकदार
मेरा कोई टुकड़ा
भविष्य के मुकुट में सज सके
झेंपते हुए मैं इस जेल की
कोठरी को ताकता हूँ
तेरह बाइ सात की कोठरी
जहाँ मात्र एक खिड़की छोटी-सी
सलाख़ों वाला दरवाजा
स्वतन्त्रता सेनानियों के घावों
और दर्द का मैं गवाह हूँ
'इंकलाब ज़िन्दाबाद' के नारे
जो मुझे हिला देते थे
उनके हौसले जो मुझसे भी
मजबूत थे
पत्थर टूट जाते थे मगर उनके
हौसले टूटते न थे
घोड़ों की टापों
ज़ंजीरों की आवाज़ों
और कोड़ों की मार के बीच
भूख और घाव और रक्त और दर्द के
बीच उनके हौसले
जो कभी टूटते न थे
इन हौसलों के पंखों पर
आज़ादी सवार थी
तो यह सपना था
सपना आज़ादी का
और यह कैसे अँट सकता था
तेरह बाइ सात की काल कोठरी में
जिसकी जड़ें
मैंग्रोव और केवड़ा की जड़ों की तरह
हज़ार-हज़ार थीं
और क्या थी यह आज़ादी
क्या यह समुद्र में उड़ने वाली
मछली थी नीले रंग की
या तट का मूंगा लाल?
क्या थी ये आज़ादी
जिसके लिए ये लोग
अपना सब कुछ छोड़कर
कूद पड़े थे आग में
आग जो बस जलती थी एक बार
कभी न बुझने के लिए
यातनाओं के कई प्रकार हैं
यातनाओं के कई प्रकार थे
यहाँ कोई भी मर सकता है यातना से
फाँसी पर लटकाया जा सकता है
पागल हो सकता है कोई भी
शेर अली तुम कैसे फटकार कर
गरज़ती आवाज़ में हाज़िरी
देते थे -- 'हाज़िर
वीर सावरकर की पचास साल क़ैद की सज़ा
मियाद के पूरी होने के पहले
पूरी हुई गुलामी की लम्बी उम्र
जेलर! तुम भी तो स्ट्रेचर पर ले जाए गए
अपने अन्तिम दिनों में
तुम भी तो मरे कलकत्ता में
अपने भी स्वदेश से
बहुत-बहुत दूर
जो दूसरों का देश छीनता है
चाँद की तरह असम्भव हो जाता है
उसका भी स्वदेश
ओ सच्चे साथी भगत सिंह के
मेरे सिंह! मेरे महावीर
तुम भी तो झुके नहीं अन्त तक
तोड़ने तुम्हारी भूख हड़ताल
आतताई जेलर ने डाली
ज़बर्दस्ती नली तुम्हारे मुँह में
पिलाने दूध
जो पेट की जगह
चला गया फेफड़ों में
जो कारण बना तुम्हारी मृत्यु का
उखड़ गया दम
लेकिन वे तोड़ न पाए तुम्हारी
हड़ताल भूख की
विजयी रहे तुम
तुम्हारी उखड़ी हुई साँसों के रास्ते ही
आई आज़ादी
कितने सुनसान और भयावह से रास्ते
कितनी उखड़ी हुई साँसों से बने हुए
जेल की हवा
ऊपर उठती है तो आकाश का आईना
चटख़ जाता है
आज़ादी तारे की तरह टूटकर
गिरती है नीचे धरती पर
एक चमकीली लकीर खींचती हुई
मंज़र हर रोज़ एक जैसा
गर्मी और पसीना
घुटन और प्यास
ये वो धरती है जहाँ हम मरते हैं
और बार-बार पैदा होते हैं
जी हाँ !
और हमारी गिनती करने का
कोई अर्थ नहीं
हमने बस अपने हाथ उठाए
किसी के आगे फैलाए नहीं
और ये आवाज़ें
चोट खाई हुई आवाज़ें
क्या तुम इन्हें सुन सकते हो
यहाँ के पहाड़ों में
अब भी जिनकी प्रतिध्वनियाँ
भटक रही हैं
क्या तुमने कभी सोचा है --
कैसे बनी अन्दमान में
समुद्र की आवाज़ !
और क्या कभी बन सकती है
आदमी की आवाज़ के बिना
समुद्र की आवाज़?
हमें घर लौटना चाहिए
हर कोई सोचता था यहाँ
परदेश में
देश भी घर हो जाता है
तुम जो अपने पीछे छोड़ गए
अपने गमज़दा माँ-बाप
भाई-बहन, दोस्त-प्रियजन
और एक डगमगाती हुई खाली नाव
समुद्र में
नाव जो तट का स्वप्न देखती है
और देखो; अभी भी
कितनी गीली है रेत
और समुद्र वापस लौट चुका है
लेबनान को जलते देखो
या इराक को
वियतनाम को जलते देखो
या फ़िलिस्तीन को
देश क्या वन की तरह होते हैं
जिनका जलना एक जैसा होता है!
लेकिन तसल्ली बस इतनी
कि इस आग में
रोटी की तरह सिंकती है आज़ादी
बनफ़शे बाहर मैदान में फूलते थे
और भीतर जेल में
आती थी उनकी ख़ुशबू
कि ख़ुशबुओं की कोई जेल नहीं होती
वे लाती हैं अपने साथ
धरती की महक भी
'कैसे तोड़ेंगे हम दीवार सेल्युलर की
कैसे लाघेंगे समन्दर
हम परिन्दे तो नहीं'
'तब हम गाएँगे ज़ोर-ज़ोर
हम गाएँगे
और हमारे गाने की आवाज़
परिन्दों की तरह उड़कर
पार करेगी समन्दर..'
'कल तुम्हारी फाँसी है
क्या करोगे तुम दिनभर आज?'
'मैं घड़ी नहीं देखूँगा भाई
मैं पेड़ों को देखूँगा
परिन्दों को दिन भर
और रातभर चाँद को
अगर जीने को मिले
एक मुकम्मल दिन...
मैं समुद्र में उड़ने वाली
नीली मछली के गीत गाऊँगा...
और दो समुन्दरों के बीच
एक नन्हें द्वीप जितनी
नींद लूँगा
मेरे सपनों की ख़ुशबू फैल जाएगी
पूरे महाद्वीप में
जैसे वन तुलसी की गन्ध
कोई रोक नहीं पाएगा उसे
नहीं; कोई सलाख नहीं
कोई सेल्युलर जेल नहीं...'
बाहर घरों में कैलेण्डर फडफ़ड़ाते हैं
मगर जेल में
तारीख़ें कोई नहीं गिनता
तारीख़ें रक्त में सनी हुईं
लिखी हुईं यातना की स्याही से
घायल परिन्दों-सी
फडफ़ड़ाती तारीख़ें
पछाड़ खाते समन्दर-सी
साहूकार रुपए गिनता है
दुकान बढ़ाने से पहले
गड़ेरिया भेड़ों को
गोधूलि बेला में
मगर तारीख़ें कोई नहीं गिनता
जेल में
जैसे नरगिस और सूरजमुखी में फ़र्क है
फ़र्क है 'हाँ' और 'ना' में
जब तुम कहते हो -- हाँ
तब केंचुए में बदल जाते हो
वह केवल 'ना' है
जो तुम्हें आदमी बनाए रखता है
कोई दीवार पर लिखता है -- ना
कोई पत्थर पर
कोई चीख़ता है भरी सभा में
हुकूमत के आगे -- ना
और लहू लाल से सुर्ख हो जाता है
संसार से जो चीज़ ग़ायब हो रही है
वह 'ना' है
जो आदमी की आत्मा है
तुम जब प्रतिरोध करते हो
तो कई पगडण्डियाँ
फूटती हैं सफ़र के लिए
और घास में फूल आने लगते हैं
वसन्त की पहली चिट्ठियों की तरह
प्रतिरोध भी एक आईना है
जिसमें आदमी
अपना चेहरा देखता है
लेकिन '47 तो बीत गया
बीत गया '47 कभी का
अगस्त का सूर्य था लाल
हमारे ख़ून की तरह
और वह बँधा नहीं था
बेड़ियों में
ओ मेरे देश ! मेरे भारत !
लेकिन देखो तो
अब भी
हाँ; अब भी
हवा में ये कैसी गन्ध है
गरज़ता है अब भी समुद्र
पछाड़ खाता है तट के पत्थरों पर
और यह बहुत अज़ीब है
कि हवा में
अब भी सेल्युलर जेल की गन्ध है
तेरह बाइ सात की
काल-कोठरी की फिंटी हुई गन्ध
और उड़ते हुए
सफ़ेद कबूतरों के पंखों पर रक्त के धब्बे
बस दीवार ख़त्म होती है यहाँ
सेल्युलर जेल की
सेल्युलर जेल ख़त्म नहीं होती।