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11:41, 25 मई 2008 के समय का अवतरण

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»  अपने मठ की ओर

वक्त के फेर में चक्कर खाता

अपने अंदर ही गिरता, संभलता

घर जैसे सारे अर्थों की जुगाली करके

न खत्म होने वाले सफ़र आँखों में रखकर

मैं बहुत दूर निकल आया हूँ

तू रह–रहकर आवाज न दे

इस कदर याद न कर मुझे

लौटना होता तो

मैं बहुत पहले लौट आता।

समन्दर, हदें, सरहदें भी

बहुत छोटी हैं मेरे सफ़रों से

चमकते देशों की रोशनियाँ

बहुत मद्धम है मेरे अंधेरों के लिए


पता नहीं मैं तलाश की ओर हूँ

कि तलाश मेरी ओर चली है

मुझे न बुला

खानाबदोश लौट के नहीं देखते

मैं अपने अस्तित्व पर

दंभी रिश्तों के कसीदे नहीं काढूँगा अब।


बड़ी मुश्किल से

मेरे अंदर मेरा भेद खुला है

छूकर देखता हूँ अपने आप को

एक उम्र बीत गई है

अपने विरोध में दौड़ते

मैंने रिश्तों और सलीकों की आंतों के टुकड़े करके

अपना सरल अनुवाद और विस्तार कर लिया है

तिलिस्म के अर्थ बदल गए हैं मेरे लिए।


रकबा छोटा हो गया है मेरे फैलाव से

यह तो मेरे पानियों की करामात है

कि दिशाओं के पार की मिट्टी सींचना चाहता हूँ

जहाँ कहीं समुन्दर खत्म होते हैं

मैं वहाँ बहना चाहता हूँ।


रमते जब मठों को अलविदा करते हैं

तो अपना जिस्म

धूनी पर रखकर ही आते हैं...।