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11:28, 25 मई 2008 के समय का अवतरण
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वे कब चाहते हैं
कि चंदन के बूटे वृक्ष बनें
बिखेरें सुंगधियाँ
बाँटे महक दसों दिशाओं में
अभागे समय में
दूषित वातावरण में ।
वे तो चाहते हैं
नीरों को बाँटना
पीरों का बाँटना ।
वे चाहते हैं, लहू-लुहान गलियों में
शकुनी नारद चले
साझे चूल्हे की मढ़ी पर
एक चौमुखा दिया जले।
वे कब चाहते हैं
पेड़ों के झुरमुट हों
बढ़ें, फलें, फूलें
वे चाहते हैं
वन में वृक्ष हों अकेले-अकेले
या फिर रगड़ते रहे बाँस आपस में
और लगती रहे आग !
वे कब सहन कर पाते हैं
दूसरों के सिरों पर रंगीन छतरियाँ
ठंडे-शीत मौसमों में कोई गरमाहट
आँगनों में गूँजती, खनखनाती हँसियाँ ।
वे तो चाहते हैं
पीछे लौट जाए
चढ़ा हुआ पानी
दूध में उबाल की तरह
भ्रूण में ख़याल की तरह
निगली जाएं शिखर दोपहरियाँ
दरख्तों के साये
धरती के जाये
बेटों के पते।
वे कब चाहते हैं
त्रिशूल-तलवार को ढाल
बनाएं हलों की फाल
निकालें कोई नई राह
वे तो चाहते हैं
भोथरी कर देना
तीखी इनकी धार !