"फुटकर शेर / कांतिमोहन 'सोज़'" के अवतरणों में अंतर
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क्या होगी तेरे पास ख़बर इससे ज़ियादा । | क्या होगी तेरे पास ख़बर इससे ज़ियादा । | ||
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हो किसी की भी ख़ता सबकी सज़ा पाता हूँ मैं । | हो किसी की भी ख़ता सबकी सज़ा पाता हूँ मैं । | ||
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| + | वो कभी न उड़ पाया जिसने बालो-पर देखा। | ||
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| + | तीरगी इतनी ज़बर है हमें एहसास न था | ||
| + | वर्ना पहलू से कोई शम्स उगाया होता। | ||
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| + | इन काँपते हाथों की तौफ़ीक़ न कम समझें | ||
| + | क्या जानिए कल इनमें शमशीर नहीं होगी। | ||
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| + | अपना सर था झुका कहीं भी नहीं। | ||
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| + | ख़ता जब अपनी नहीं थी तो अपने बाप की थी | ||
| + | बड़ा अज़ाब था यारों का मेमना होना। | ||
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| + | इसी तारीक शब की कोख से सूरज निकलना है। | ||
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07:06, 20 जुलाई 2016 का अवतरण
1.
एक अजब ख़्वाब में एक उम्र गुज़ारी हमने
सर पे हर शख्स के पापोश थे दस्तार न थे ।
ईंट गारे में मुझे सारी उमर क़ैद रखा
कैसे कह दूँ मेरे दुश्मन दरो-दीवार न थे ।।
बदगुमानी कजअदाई बेनियाज़ी बरहमी
गोया तेरी हर नवाज़िश भूलता जाता हूं मैं ।
गिला ज़बां पे कई बार आ गया होता
अगर न सोचते हम भी उसे बुरा न लगे ।
हाले-दिल सुनके वो हँसा लेकिन
ये अदा आरिज़ी नहीं लगती ।
ज़िन्दगी पर यक़ीन कौन करे
ये किसी की सगी नहीं लगती ।।
ये राहगुज़र है किसे इनकार है इससे
इस राह से अब उसका गुज़र है कि नहीं है ।
मैं जिसके लिए खाना-ए-वीरान हुआ हूँ
इस बात की उसको भी ख़बर है कि नहीं है ।
ये रोने पे आया तो चुपाये न चुपेगा
दिल भी मेरा ज़िद्दी है किसी आबे-रवां सा ।
जवानी उम्र का सैलाब है जो कुछ नहीं सुनता
ये दीवाने की ज़िद है और सहरा उसकी मंज़िल है ।
अपनी गुदड़ी में छुपाये रहे अनमोल रतन
जौहरी ख़ूब थे हीरों के ख़रीदार न थे ।
अपने हाथ छोटे थे हम ये ख़ार चुन लाए
फूल-फल सभी कुछ था था बुलन्द शाख़ों में ।
दिल की जगह रक्खा हो पत्थर सर में भरी हो आतिशे-ज़र
उस महफ़िल में शेर सुनाकर मुफ़्त लहू गरमाना क्या ।
हर कोई संग उठाए था कि सर फोड़ना है
डर नहीं था कि वो पत्थर कहीं भगवान न हो ।
हम ख़ुद भी कमर बाँध के तैयार हैं क़ासिद
क्या होगी तेरे पास ख़बर इससे ज़ियादा ।
क्यूंँ मेरी ख़्वाहिश न हो हर सिम्त हो अम्नो-अमान
हो किसी की भी ख़ता सबकी सज़ा पाता हूँ मैं ।
एक दिन वो आलम था हर हरीफ़<ref>प्रतिद्वंद्वी</ref> अपना था
आज अपना साया भी किस क़दर पराया है।
जिसने कुछ नहीं देखा आस्मां पे जा पहुँचा
वो कभी न उड़ पाया जिसने बालो-पर देखा।
तीरगी इतनी ज़बर है हमें एहसास न था
वर्ना पहलू से कोई शम्स उगाया होता।
इन काँपते हाथों की तौफ़ीक़ न कम समझें
क्या जानिए कल इनमें शमशीर नहीं होगी।
अजीब बात है कोई यक़ीं नहीं करता
कि मेरे साथ सुलूक उसका दोस्ताना हुआ।
हर क़दम पर था आस्तां यूँ तो
अपना सर था झुका कहीं भी नहीं।
ख़ता जब अपनी नहीं थी तो अपने बाप की थी
बड़ा अज़ाब था यारों का मेमना होना।
बू हो कि रंग हो न रहेगा किसी को याद
हाँ सोज़ एक फूल था खिलकर बिखर गया।
आह तक़दीर ने क्या दिन हमें दिखलाए हैं
हम कि हर हाल में जीने पे उतर आए हैं।
अँधेरे से न यूँ मायूस हो रौशन जबीं वाले
इसी तारीक शब की कोख से सूरज निकलना है।
हमने एक बार वफ़ा की तो वफ़ा करते रहे
ये अगर जुर्म है यारो तो ख़तावार हैं हम।
