भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"चाहते हैं अब भुला दें उसको अपने दिल से हम / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
SATISH SHUKLA (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | उफ़! मिटा पाए न उसकी याद अपने दिल से हम | |
− | प्यार करते हैं बहुत जिस हुस्ने-लाहासिल से हम | + | प्यार करते हैं बहुत जिस हुस्ने-लाहासिल से हम |
− | गर्मिए लब से | + | गर्मिए लब की तपिश से सुब्ह पाते हैं हयात |
− | क़त्ल | + | क़त्ल हो जाते हैं शब को, अबरुए क़ातिल से हम |
− | + | ||
− | + | बस! ख़ुदा का शुक्र कह कर, टाल देता है हमें | |
− | + | ||
− | + | ||
− | बस | + | |
हाल जब भी पूछते हैं इस दिले-बिस्मिल से हम | हाल जब भी पूछते हैं इस दिले-बिस्मिल से हम | ||
− | आएगा भी या नहीं अब वो सफ़ीना लौटकर | + | आएगा भी या नहीं अब वो सफ़ीना लौटकर |
− | बारहा पूछा किये मंझधार और साहिल | + | बारहा पूछा किये मंझधार और साहिल से हम |
कुछ तो है, जो कुछ नहीं तो, फिर ये उठता है सवाल | कुछ तो है, जो कुछ नहीं तो, फिर ये उठता है सवाल | ||
− | पास रहकर दूर क्यों हैं | + | पास रहकर दूर क्यों हैं दोस्तो मंज़िल से हम |
− | + | ||
− | + | आरज़ू-ए-दीद में, बैठे हैं, कैसे जाएंगे ? | |
− | दिल लगा बैठे किसी | + | इक झलक देखे बिना उठकर तेरी महफ़िल से हम |
+ | |||
+ | देखकर लब पर तबस्सुम, खा गए धोका 'रक़ीब' | ||
+ | दिल लगा बैठे किसी मग़रूर पत्थर दिल से हम | ||
</poem> | </poem> |
05:27, 2 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
उफ़! मिटा पाए न उसकी याद अपने दिल से हम
प्यार करते हैं बहुत जिस हुस्ने-लाहासिल से हम
गर्मिए लब की तपिश से सुब्ह पाते हैं हयात
क़त्ल हो जाते हैं शब को, अबरुए क़ातिल से हम
बस! ख़ुदा का शुक्र कह कर, टाल देता है हमें
हाल जब भी पूछते हैं इस दिले-बिस्मिल से हम
आएगा भी या नहीं अब वो सफ़ीना लौटकर
बारहा पूछा किये मंझधार और साहिल से हम
कुछ तो है, जो कुछ नहीं तो, फिर ये उठता है सवाल
पास रहकर दूर क्यों हैं दोस्तो मंज़िल से हम
आरज़ू-ए-दीद में, बैठे हैं, कैसे जाएंगे ?
इक झलक देखे बिना उठकर तेरी महफ़िल से हम
देखकर लब पर तबस्सुम, खा गए धोका 'रक़ीब'
दिल लगा बैठे किसी मग़रूर पत्थर दिल से हम