"कुछ को तो शबो-रोज़ कमाने की पड़ी है / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर
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मुफ़लिस को अभी और उठाने की पड़ी है | मुफ़लिस को अभी और उठाने की पड़ी है | ||
− | मुद्दत से बिला बात ही तुम रूठे रहे हो | + | मुद्दत से बिला बात ही तुम रूठे रहे हो |
क्या बात है? अब मुझको मनाने की पड़ी है | क्या बात है? अब मुझको मनाने की पड़ी है | ||
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इस वक़्त तुझे लौट के आने की पड़ी है | इस वक़्त तुझे लौट के आने की पड़ी है | ||
− | + | ऐ रूह बदन को है अभी तेरी ज़रूरत | |
उजलत है तुझे आज ही, जाने की पड़ी है | उजलत है तुझे आज ही, जाने की पड़ी है | ||
+ | होता ही नहीं काम कोई वक़्त पे उनसे | ||
+ | अब सरसों हथेली पे उगाने कि पड़ी है | ||
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+ | ऐ काश! मेरा ख़्वाब हो शर्मिंद-ए-ताबीर | ||
+ | नफ़रत कि मुझे आग बुझाने कि पड़ी है | ||
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खाने के लिए जीना, नहीं है कोई जीना | खाने के लिए जीना, नहीं है कोई जीना | ||
समझेंगे वो कैसे जिन्हें खाने की पड़ी है | समझेंगे वो कैसे जिन्हें खाने की पड़ी है | ||
सुनता है 'रक़ीब' आपकी बातों को वो लेकिन | सुनता है 'रक़ीब' आपकी बातों को वो लेकिन | ||
− | सुनने की नहीं उसको सुनाने की पड़ी है | + | सुनने की नहीं उसको सुनाने की पड़ी है |
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04:40, 4 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
कुछ को तो शबो-रोज़ कमाने की पड़ी है
पानी की तरह कुछ को बहाने की पड़ी है
झुकती ही चली जाए कमर बोझ से फिर भी
मुफ़लिस को अभी और उठाने की पड़ी है
मुद्दत से बिला बात ही तुम रूठे रहे हो
क्या बात है? अब मुझको मनाने की पड़ी है
बनने ही को है काम बिगड़ जाएगा सारा
इस वक़्त तुझे लौट के आने की पड़ी है
ऐ रूह बदन को है अभी तेरी ज़रूरत
उजलत है तुझे आज ही, जाने की पड़ी है
होता ही नहीं काम कोई वक़्त पे उनसे
अब सरसों हथेली पे उगाने कि पड़ी है
ऐ काश! मेरा ख़्वाब हो शर्मिंद-ए-ताबीर
नफ़रत कि मुझे आग बुझाने कि पड़ी है
खाने के लिए जीना, नहीं है कोई जीना
समझेंगे वो कैसे जिन्हें खाने की पड़ी है
सुनता है 'रक़ीब' आपकी बातों को वो लेकिन
सुनने की नहीं उसको सुनाने की पड़ी है