"बात हक़ की हो तो क्यों चन्द मकाँ तक पहुँचे / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर
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बात हक़ की हो तो क्यों चन्द मकाँ तक पहुँचे | बात हक़ की हो तो क्यों चन्द मकाँ तक पहुँचे | ||
− | इस क़दर फैले | + | इस क़दर फैले कि वह सारे जहाँ तक पहुँचे |
आँखों आँखों में हुआ करती हैं बातें अब तक | आँखों आँखों में हुआ करती हैं बातें अब तक | ||
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ये अलग बात, कि अब कोई, कहाँ तक पहुँचे | ये अलग बात, कि अब कोई, कहाँ तक पहुँचे | ||
− | लोग भी कहते हैं, है भी वो यक़ीनन | + | लोग भी कहते हैं, है भी वो यक़ीनन मुजरिम |
इतना शातिर है, कोई कैसे गुमाँ तक पहुँचे | इतना शातिर है, कोई कैसे गुमाँ तक पहुँचे | ||
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वक़्त-बेवक़्त चली आती हैं यादें अब भी | वक़्त-बेवक़्त चली आती हैं यादें अब भी | ||
यह तसव्वुर लिए हम राज़े-निहाँ तक पहुँचे | यह तसव्वुर लिए हम राज़े-निहाँ तक पहुँचे | ||
− | + | यूँ तो कुछ भी नहीं औक़ात हमारी लेकिन | |
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रहमते हक़ के सहारे ही यहाँ तक पहुँचे | रहमते हक़ के सहारे ही यहाँ तक पहुँचे | ||
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+ | ज़ोर इंसाँ का नहीं बादे सबा के रुख़ पर | ||
+ | ख़ुशबुए गुल का है क्या, चाहे जहाँ तक पहुँचे | ||
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+ | है तो मसरूफ़ बहुत क़त्ल की तफ्तीश में वह | ||
+ | यह ज़रूरी नहीं क़ातिल के निशाँ तक पहुँचे | ||
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+ | दीनो मज़हब की न ता-उम्र जिन्हें फ़िक्र रही | ||
+ | वक़्त-ए-आख़िर वही आवाज़े अज़ाँ तक पहुँचे | ||
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+ | रोक रक्खा है भरे अश्क़ों को इन आँखों में | ||
+ | इस से पहले कि ये दिल आहो-फुगां तक पहुँचे | ||
रेत के ज़र्रों में पानी का गुमाँ ले के 'रक़ीब' | रेत के ज़र्रों में पानी का गुमाँ ले के 'रक़ीब' | ||
− | तिश्नालब कैसे भला आबे-रवाँ तक पहुँचे | + | तिश्नालब कैसे भला आबे-रवाँ तक पहुँचे |
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05:19, 4 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
बात हक़ की हो तो क्यों चन्द मकाँ तक पहुँचे
इस क़दर फैले कि वह सारे जहाँ तक पहुँचे
आँखों आँखों में हुआ करती हैं बातें अब तक
जाने कब गुफ़्तगू आँखों से ज़ुबाँ तक पहुँचे
गामज़न यूँ तो सभी जानिबे मंज़िल हैं मगर
ये अलग बात, कि अब कोई, कहाँ तक पहुँचे
लोग भी कहते हैं, है भी वो यक़ीनन मुजरिम
इतना शातिर है, कोई कैसे गुमाँ तक पहुँचे
वक़्त-बेवक़्त चली आती हैं यादें अब भी
यह तसव्वुर लिए हम राज़े-निहाँ तक पहुँचे
यूँ तो कुछ भी नहीं औक़ात हमारी लेकिन
रहमते हक़ के सहारे ही यहाँ तक पहुँचे
ज़ोर इंसाँ का नहीं बादे सबा के रुख़ पर
ख़ुशबुए गुल का है क्या, चाहे जहाँ तक पहुँचे
है तो मसरूफ़ बहुत क़त्ल की तफ्तीश में वह
यह ज़रूरी नहीं क़ातिल के निशाँ तक पहुँचे
दीनो मज़हब की न ता-उम्र जिन्हें फ़िक्र रही
वक़्त-ए-आख़िर वही आवाज़े अज़ाँ तक पहुँचे
रोक रक्खा है भरे अश्क़ों को इन आँखों में
इस से पहले कि ये दिल आहो-फुगां तक पहुँचे
रेत के ज़र्रों में पानी का गुमाँ ले के 'रक़ीब'
तिश्नालब कैसे भला आबे-रवाँ तक पहुँचे