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"हर एक लफ़्ज़ पे वो जाँ निसार करता है / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर
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नज़र के तीर से क्यों कर वो वार करता है | नज़र के तीर से क्यों कर वो वार करता है | ||
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− | कभी | + | कभी ये ख़ुश्क कभी ख़ुशगवार करता है |
− | + | फ़रेबो-मक्र से मारा है पीठ में ख़न्जर | |
वगरना, मर्द तो सीने पे वार करता है | वगरना, मर्द तो सीने पे वार करता है | ||
उसी के वास्ते रब ने बनाई है जन्नत | उसी के वास्ते रब ने बनाई है जन्नत | ||
− | जो | + | जो काम नेक यहाँ बेशुमार करता है |
− | अता हुई है | + | अता हुई है, हमेशा ही रहनुमाई 'रक़ीब' |
− | + | जो सर निगूँ दरे-परवर दिगार करता है | |
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04:51, 6 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
हर एक लफ़्ज़ पे वो जाँ निसार करता है
अदब नवाज़ है उर्दू से प्यार करता है
हमेशा चलते ही रहने की कैफ़ियत अच्छी
ठहर के वक़्त कहाँ इंतज़ार करता है
क़रीब आके मेरे दिल में झाँक कर देखे
नज़र के तीर से क्यों कर वो वार करता है
तअल्लुक़ात का मौसम अजीब है मौसम
कभी ये ख़ुश्क कभी ख़ुशगवार करता है
फ़रेबो-मक्र से मारा है पीठ में ख़न्जर
वगरना, मर्द तो सीने पे वार करता है
उसी के वास्ते रब ने बनाई है जन्नत
जो काम नेक यहाँ बेशुमार करता है
अता हुई है, हमेशा ही रहनुमाई 'रक़ीब'
जो सर निगूँ दरे-परवर दिगार करता है