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ऊषे!
मुझ मानव का, मानस-मृणाल ही क्यों
रह सकता कैसे नीरव?
प्रातः अम्बर के मग
तेरे शुभागमन पर!
विहँस-विहँसकर सुमन खिल उठते!
हृदय खोल अति प्रमुदित हो
चटक-चटक चटकारी के स्वर
करते तेरा ही अभिवादन!
विहंगावलियों की टोली
करने तेरा ही तो अभिवन्दन
फर-फर कर, पर फड़का कर
नीड़ों से निकल बाहर
गगन में हर्षित हो विचरण कर
चहक-चहक मुखरित हो
सुमधुर स्वर में गाकर गायन
करती है रव-कलरव!
ऊषे
फिर मुझ मानव का मानस-मृणाल ही क्यों?
रह सकता कैसे नीरव?