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"रस्मन हैं साथ-साथ, वो चाहत नहीं है अब / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर
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रस्मन हैं साथ-साथ, वो चाहत नहीं है अब
रिश्तों में पहले जैसी तमाज़त नहीं है अब
लगता है वक़्त ले गया उसकी भी शोख़ियाँ
आँखों में वो चमक वो शरारत नहीं है अब
ख़ामोशियाँ कुछ ऐसी उन्हें आ गयीं पसन्द
महफ़िल में बोलने की भी आदत नहीं है अब
दे दी थीं अस्थियाँ भी कभी जिसने इन्द्र को
वो ऋषि दधीचि जैसी सख़ावत नहीं है अब
देसी, दसहरी आम हैं हापुस के भाव में
महँगाई के सबब वो हलावत नहीं है अब
मिलकर तो और तेज़ हुआ इश्क़ का बुख़ार
ताउम्र ये रहेगा हरारत नहीं है अब
क़ाइल थे जिसके नाज़ो-अदा के 'रक़ीब' भी
कहता हूँ मैं क़सम से नज़ाकत नहीं है अब