भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ज़िन्दगी ख़राब हो गई / दीपक शर्मा 'दीप'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार= दीपक शर्मा 'दीप' }} {{KKCatGhazal}} <poem> ज़िन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(कोई अंतर नहीं)

20:40, 16 सितम्बर 2016 का अवतरण

 
ज़िन्दगी ख़राब हो गई
और बे-हिसाब हो गई I

ख़ार-ख़ार हो गयी थी मैं
यकबयक गुलाब हो गई ?

ज़ुल्फ़ की घटा खुली अभी
हाय , महताब हो गई I

देखते ही खो गया , उसे
इस क़दर शराब हो गई I

दोसतों की बात मान ली
साँस भी अज़ाब हो गई I

कल तलक दबी-दबी रही
आज इन्कलाब हो गई I

शाईरों ने टांक दी चुनर
शाईरी , शबाब हो गई I

बा-शऊर दिल निकालती
माहरू , कसाब हो गई I

‘दीप’ यूँ जगा दिया गया
ख़ाब ख़ाब ख़ाब हो गई I