भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मैं भी गुम माज़ी में था / प्रखर मालवीय 'कान्हा'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रखर मालवीय 'कान्हा' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
04:23, 18 सितम्बर 2016 के समय का अवतरण
मैं भी गुम माज़ी में था
दरिया भी जल्दी में था
एक बला का शोरो-गुल
मेरी ख़ामोशी में था
भर आयीं उसकी आँखें
फिर दरिया कश्ती में था
एक ही मौसम तारी क्यों
दिल की फुलवारी में था?
सहरा सहरा भटका मैं
वो दिल की बस्ती में था
लम्हा लम्हा ख़ाक हुआ
मैं भी कब जल्दी में था?