"भय / मोहन राणा" के अवतरणों में अंतर
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10:38, 28 अप्रैल 2008 का अवतरण
लताओं से लिपटे पुराने पेड़
गहरी छायाओं में सोया है जंगल
मेरी बढ़ती हुई धड़कन में
सहमा है रक्त
उत्तेजना में देखता हूँ
छुपे हुए चेहरों को
उतरते हुए मुखौटों को
छनती हुई रोशनी के आर पार
जो पहुँच जाती है मेरी जड़ों में भी,
क्यों चला आया मैं यहाँ
अकेले ही
जो नहीं था उसे
ले आया यहाँ
18.8.2002
होगा एक और शब्द
नीली रंगते बदलती
आकाश और लहरों की
बादल गुनगुनाता कुछ
सपना सा खुली आँखों का
कैसा होगा यह दिन
कैसा होगा
यह वस्त्र क्षणों का
ऊन के धागों का गोला
समय को बुनता
उनींदे पत्थरों को थपकाता
होगा एक और शब्द कहने को यह किसी और दिन
28.5.2001
किसी आशा में
गूंगे शब्दों से
भरा मुँह
शैवालों से भरी किताबें
आज का दिन भी नहीं कहता
कुछ नया,
खोल देता हूँ खिड़की दरवाजे
किसी आशा में
5.9.2001
स्कूल
पहले मुझे किताब की जिल्द मिली
फिर एक कॉपी
बस्ते में और कुछ नहीं बचा इतने बरस बाद
घंटी सुनते ही जाग पड़ा
मैदान में कोई नहीं था दसवीं बी में भी कोई नहीं
क्या आज स्कूल की छुट्टी है सोचा मैंने
हवाई जहाज मध्य यूरोप में कहीं था और मैं
कई बरस पहले अपने स्कूल
धरती ने ली सांस हँसा समुंदर आकाश खोज में है अनंतता की
बहुत पहले मैंने उकेरा अपना नाम मेज पर समय की त्वचा के नीचे धूमिल कोई तारीख
कोई दोपहर उड़ा लाती हवा के साथ किसी बात की जड़ मैं वह दीवार हूँ जिसकी दरार में उगा है वह पीपल
5.9.2006
कुछ पाने की चिंता
अपने ही विचारों में उलझता यहाँ वहाँ क्या तुम्हें भी ऐसा अनुभव हुआ कभी, जो अब याद नहीं
बात किसी अच्छे मूड से हुई थी कि लगा कोई पंक्ति पूरी होगी पर्ची के पीछे उस पल सांस ताजी लगी और दुनिया नयी, यह सोचा और साथ हो गई कुछ पाने की चिंता
मैं धकेलता रहा वह और पास आती गई, अच्छा विचार नहीं बचा सकता मुझे अपने आप से भी, उसे खोना चाहता हूँ नहीं जीना चाहता किसी और का अधूरा सपना
30.8.2006
अस्मिता
क्या मैं हूँ वह नहीं जो याद नहीं अब, जो है वह किसी और की स्मृति नहीं क्या जिनसे जानता पहचानता अपने आपको मनुष्य ही नहीं पेड़- पंछी हवा आकाश मौन धरती घर खिड़की एक कविता का निश्वास!
पर ये नहीं किसी और की स्मृति क्या? जो याद है बस भूलकर कुछ
13.8.2006
कौन
बदलते हुए जीवन को देखते उसे जीते हुए
मैं ठीक करता टूटी हुई चीजों को
उठा कर सीधा करता
गिरी हुई को
कतरता पोंछताझाड़ता बुहारता,
जीते हुए बदलते जीवन को देखता
छूटता गिरता टूटता गर्द होता,
और आते हुए लोग मेरे बीतते हुए दृश्य को
कहते सामान्य
सब कुछ नया साफ सुथरा
जैसे मैं देखता उसे इस पल
और बदलता तभी
छूटता मेरे हाथों से
जैसे वह कभी ना था वहाँ,
कौन! रुक कर पूछता मैं
अब तब नहीं जाना मैंने तुम्हें
11.9.2005
गिरगिट
हम रुक कर चौंकते हैं जैसे पहली बार देखते एक दूसरे को जानते हुए भी कि पहचान पुरानी है, करते इशारा एक दिशा को वह हरा कैसा है क्या रंग वसंत का है! वह गर्मियों का भी नहीं लगता, आइये ना वहाँ साथ सुनने कुछ कविताएँ पर उन वनों में विलुप्त है सन्नाटा अनुपस्थित है चिड़ियाँ कातर आवाजें वहाँ... कैसे मैं जाऊँ वहाँ कविताएँ सुनने,
हम रुकते हैं पलक झपकाते झेंपते जैसे छुपा न पाते झूठ को कहीं टटोलते कोई जगह बदलते कोई रंग कोई चेहरा
27.4.2006
अपवाद
तुम अपवाद हो इसलिए अपने आप से करता मेरा विवाद हो, सोचता मैं कोई शब्द जो फुसलादे मेरे साथ चलती छाया को कुछ देर कि मैं छिप जाऊँ किसी मोड़ पे, देखूँ होकर अदृश्य अपने ही जीवन के विवाद को रिक्त स्थानों के संवाद में.
26.11.2005
वसंत
सपनों के बिना अर्थहीन है यथार्थ यही सोचते मैं बदलता करवट, परती रोशनी में सुबह की लापता है वसंत इस बरस, हर पेड़ पर चस्पा है गुमशुदा का इश्तिहार, पर उसमें ना कोई अता है ना पता ना ही कोई पहचान मालूम नहीं मैं क्या कहूँगा यदि वह मिला कहीं क्या मैं पूछूँगा उसकी अनुपस्थिति का कारण कि इतनी छोटी सी मुलाकात क्या पर्याप्त फिर से पहचानने के लिए तो लिख लूँ इस इश्तिहार में अपना नाम भी कि याद आए कुछ जो भूल ही गया, अनुपस्थित स्पर्श
21.3.2006
तुम्हारा कभी कोई नाम ना था
वे व्यस्त हैं
वे महत्वपूर्ण काम में लगे लोग हैं
मुझे शिकायत नहीं वे व्यस्त
मेरे हर सवाल पर उनका हाल
कि वे व्यस्त हैं,
रुक कर देखने भर को कि अब नहीं मैं उनके साथ चलता
पर वे ही बुदबुदाते कोई मंत्र
मैं व्यस्त हूँ
मैं व्यस्त हूँ
सदा समय के साथ
सदा समय के साथ
पर कान वाले लोग बहरे हैं, और 20/20 आँख वाले अँधों की तरह टटोल रहे हैं दिन को.
और समय वही दोपहर के 11:22 कहीं शाम हो चुकी होगी कहीं अभी होती होगी सुबह नयी कहीं आने वाली होगी रात पुरानी
क्या तुम लिखती ना थी कविताएँ कभी पूछता उससे जैसे कुछ याद आ जाए उसे, लिखती थी कभी, पर अब अपना नाम भी नहीं लिखती, कौन सा नाम मैं पूछता उसकी खामोशी को जो अब याद नहीं कि भूलना कठिन है तुम्हें
16.11.2005
अजनबी बनता पहचान
देखें तो कौन रहता है इस घर में
किसी आश्चर्य की आशा
धीरज से हाथ बाँधे खड़ा
मैं देता दस्तक दरवाज़ेपर
सोचता- कितना पुराना है यह दरवाज़ा
सुनता झाडि़यों में उलझती हवा को
ट्रैफिक के अनुनाद को
सुनता अपनी सांस को बढ़ती एक धड़कन को
पायदान पर जूते पौंछता
दरवाज़ेपे लगाता कान
कि लगा कोई निकट आया भीतर दरवाज़ेके
बंद करता आँखें
देखता किसी हाथ को रुकते एक पल सिटकनी को छूते
निश्वास जैसे अनंत सिमटता वहीं पर,
भीतर भी बाहर भी मैं ही जैसे घर का दरवाज़ा अजनबी बनता पहचान बनाता
28.2.2006
सच का हाथ
ये आवाजें ये खिंचे हुए उग्र चेहरे चिल्लाते
मनुष्यता खो चुकी अपनी ढिबरी मदमस्त अंधकार में बस टटोलती एक क्रूर धरातल को, कि एक हाथ बढ़ा कहीं से जैसे मेरी ओर आतंक से भीगे पहर में कविता का स्पर्श, मैं जागा दुस्वप्न से आँखें मलता पर मिटता नहीं कुछ जो देखा
7.2.2006
सर्दियाँ
जमे हुए पाले में गलते पतझर को फिर चस्पा दूँगा पेड़ों पर हवा की सर्द सीत्कार कम हो जाएगी, जैसे अपने को आश्वस्त करता पास ही है वसंत इस प्रतीक्षा में पिछले कई दिनों से कुछ जमा होता रहा ले चुका कोई आकार कोई कारण कोई प्रश्न मेरे कंधे पर मेरे हाथों में जेब में कहीं मेरे भीतर कुछ जिसे छू सकता हूँ यह वज़नअब हर उसांसमें धकेलता मुझे नीचे किसी समतल धरातल की ओर,
4.2.2006
ढलती एक शाम
कितने आयाम कि चैन नहीं जिसमें
ली यह सांस करने यह सवाल
कि नहीं करूँगा फिर वही सवाल,
मैं चिड़िया हूँ या पतंग
या दोनों ही हूँ एक साथ
उस आयाम में
ढलती एक शाम
29.1.2006
कविता
कविता जीवन का क्लोरोफिल
और जीवन सृष्टि का पत्ता
उलटता पृष्ठ यह सोचकर
कौन सोया है इस वृक्ष की छाया में
किसका यह सपना
जो देखता मैं
उसे अपना समझ कर.
22.1.2006
पावती
लौटती हुई रचनाएँ
किसे होता है खेद
संपादक को
कवि को ?
शहडोल के शर्मा जी को
परीक्षाओं के कुंजीकारों को
नई सड़क की भीड़ को
किसी अधूरे
बड़बड़ाए वाक्य को
किसे होता है खेद इस चुप्पी में
मुझे कोई खेद नहीं उन्हें भी कोई खेद नहीं फिर यह पावती किसके लिए
9.2.2006
झपकी
नंगे पेड़ों पर
उधड़ी हुई दीवारों पर
बेघर मकानों पर
खोए हुए रास्तों पर
भूखे मैदानों पर
बिसरी हुई स्मृतियों पर
बेचैन खिड़कियों पर
छुपी हुई छायाओं में बीतती दोपहर पर,
हल्का सा स्पर्श
ढांप लेता हूँ उसे हथेलियों से,
उठता है मंद होते संसार का स्वर
आँख खुलते ही
3.2.2005
भंवर
अंगूर की बेलों में लिपट सो जाती धूप बीच दोपहर गहरी छायाओं में सोए हैं राक्षस सोए हैं योद्धा सोए हैं नायक सोया है पुरासमय खुर्राता अपने आपको दुहराते अभिशप्त वर्तमान में
4.12.2005
चश्मा
कभी कभी लगाता हूँ
पर खुदको नहीं
औरों को देखने के लिए लगाता हूँ चश्मा,
कि देखूँ मैं कैसा लगता हूँ उनकी आँखों में
उनकी चुप्पी में,
कि याद आ जाए तो उन्हें आत्मलीन क्षणों में मेरी भी
आइने में अपने को देखते,
मुस्कराहट के छोर पर.
2.12.2005
सड़क पर
चीखती हुई कुछ बोलती चिड़ियाँ लगाती बेचैन सूखते आकाश में गोता यह एक चलता हुआ घर भागती हुई सड़क पर यह एक बोलती खामोश दोपहर
14.7.2006
यदि
वे मर जाएँगे
तो विलुप्त हो जाएँगी लहरें
पत्थर हो जाएगी नदी
जीवाश्म हो जाएँगी मछलियाँ पानी में
नाव खो देगी अपना किनारा,
यदि लहरों के राजहँस मर जाएँ.
हम रुके रह जाएँगे
अतीत में किसी वर्तमान को खोजते
8.4.2006
कोई आकर पूछे
रुके और पहचान ले
अरे तुम
जैसे बस पलक झपकी
कि रुक गया समय भी
कुछ अधूरा दिख गया
और याद करते
कुछ अधूरा छूट गया
फिर से
चलते चलते
1.8.2005
किताब
रुकते अटकते कभी थक कर खो जाते अपनी ही उम्मीदों में निराशा को पढ़ते हुए सुबह की डाक में
पूरी हो गई एक किताब
किसी अंत से शुरू होती
किसी आरंभ पर रुक जाती
पूरी हो गई एक किताब
आकाश गंगा में एक
बूंद पृथ्वी
भटकते अंधकार में
17.9.2004
सवाल
क्या यह पता सही है?
मैं कुछ सवाल करता
सच और भय की अटकलें लगाते एक तितर बितर समय के टुकड़ों को बीनता विस्मृति के झोले में
और वह बेमन देता जवाब अपने काज में लगा जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो
जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाउँगा मैं सच को वह समझने वाली बाती नहीं कि समझा सके कोई सच, आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे चलता इस उम्मीद में कि आगे कोई मोड़ ना हो कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े किधर जाता है यह रास्ता,
समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर यही जान पाता कि सबकुछ बस यह पल हमेशा अनुपस्थित
12.7.
भूल-भुलैया
अधजागा ही सोया गया मैं
फिर भी बंद न हुआ सोचना
झरती रही कतरनें मन में
तुम्हें याद करते
कभी हँस देता
कभी सोचता
कोई और संभावना
उस रास्ते पर अब चौड़ी सड़क है
चहल पहल पर वह जगह नहीं
जो वहाँ थी
बस स्मृति है !
हर गली से हम पहुँचते फिर उसी सड़क के कोने पर
अधजागा मैं बढ़ाता हाथ
छूटते सपने की ओर,
कोई आता निकट
दूर होता जाता भूल-भुलैया में
फिर वहीं अपने संशय के साथ
24.11.2003
अंत में
बंद कर देता हूँ अपने को सुनना कानों से हाथों को हटाकर बंद कर देता हूँ कुछ कहना शुरू करता हूँ जानना बिना किताबों के बिना उपदेशों के बिना दिशा सूचक के बिना मार्गदर्शक के बिना नक्शे के बिना ईश्वर के बस जानना
25.10.2004