"ग्राम देवता / जे० स्वामीनाथन" के अवतरणों में अंतर
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धरती के अशुभ रहस्यों से निबटने के लिए | धरती के अशुभ रहस्यों से निबटने के लिए | ||
लाए थे हाटकोटी से देवदार की | लाए थे हाटकोटी से देवदार की | ||
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दीवारों के लिए बैद्यनाथ से पत्थर | दीवारों के लिए बैद्यनाथ से पत्थर | ||
और काँगड़े में ढली ख़ास | और काँगड़े में ढली ख़ास | ||
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शिखर के लिए काँस-कलश | शिखर के लिए काँस-कलश | ||
रातोंरात | रातोंरात |
02:36, 13 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण
ये मन्दिर पाण्डुओं ने बनाया है
पहले यहाँ
इस टीले के सिवा कुछ न था
काल के उदर में पगी
इसकी शहतीरों को देखो
पथरा गई हैं
और इसके पत्थर ठोंको
फौलाद-सा बोलते हैं
चौखट के पीछे
काई में भीगी इसके भीतर की रोशनी
गीली
नम
जलमग्न गुफ़ा
कोख में जिसके
गिलगिला पत्थर
गुप्त विद्याओं को संजोए
मेंढ़कनुमा
बैठा है हमारे गाँव का देवता
न जाने कब से
पहले यहाँ कुछ न था
इस टीले के सिवा
बस
ये नंगा टीला
पीछे गगन के विस्तार को नापता
धौलाधार
अधर में मण्डराता पारखी
नीचे
घाटी में रेंगती पारे की लीक
गिरी गंगा के किनारे
श्मशान
पराट की झिलमिलाती छत
बीस घर उस पार
दस बारह इधर जंगल के पास
चीड़ों के बीच
धूप-छाँव का उँधियाता खेल
कगार पर बैठी
मिट्टी कुरेदती सपना छोरी
हरी पोशाक ढाटू लाल गुड़हल-सा
सूरज
डिंगली से डिंगली किरण पुंजों के मेहराब
सजाती ठहरती सरसराती हवा
तितलियों-सा डोलती
टीले पर दूब से खेलती
धूप
सीसे में ढलता पानी
चट्टान पर
टकटकी बाँधे
गिरगिट का तन्त्रजाल
धौनी सी धड़कती छाती दोपहर की
यहाँ पहले कुछ न था
इस टीले के सिवा
ये मन्दिर पाण्डुओं ने बनाया है
रातों-रात
कहते हैं
यहाँ पहले कुछ न था
दिन ढलते
एक अन्देशे के सिवा
अनहोनी का एक अहसास
यकायक आकाश सुर्ख़ हो गया था
गिरी गंगा लपलपा उठी थी
महाकाल की जिह्वा की तरह
यकायक बिदक गए थे
गाम लौटते डंगर
फटी आँखे लपकी थी खड्ड की ओर
पगडण्डी छोड़
इधर उधर सींगें उछाल
चढ़ गए थे धार पर बदहवास
चरवाहा
दौड़ पड़ा था बावला-सा
गाँव की ओर
कौवे उठ-उठ कर गिरते थे वृक्षों पर
और जंगल एक स्याह धब्बे-सा
फैलता चला गया था हाशिए तोड़
सिमट गया था घरों के भीतर
सहमा-दुबका सारा गाँव
रात भर आकाश
गडगडाता रहा फटता रहा बरसता रहा
टूटती रही बिजली गिरती रही रात भर
कहते हैं स्वयं
ब्रह्मा विष्णु महेश
उतरे थे धरती पर
पाण्डुओं की मदद और
धरती के अशुभ रहस्यों से निबटने के लिए
लाए थे हाटकोटी से देवदार की
सप्त-सुरों वाली झालर-शुदा शहतीरें
चैट के लिए पीने तराशे स्लेट
दीवारों के लिए बैद्यनाथ से पत्थर
और काँगड़े में ढली ख़ास
अष्ट धात की मूर्ति
शिखर के लिए काँस-कलश
रातोंरात
ये मन्दिर पाण्डवों ने बनाया है
सुबह
जब बुद्धुओं की तरह घर लौटते
पशुओं की घण्टियों के साथ
कोहरा
छँटा
वही निम्मल नीला आकाश
और धुन्ध से उबरते टीले पर
न जाने कबसे खड़ा ये मन्दिर
हवा में फहराती जर्जर पताका
मानो कुछ हुआ ही न हो
बस !
न जाने कब
रातों-रात
गर्भगृह को चीर
धरती से प्रकट हुआ
ये चिकना पत्थर
आदिम कालातीत
गाँव की नियति का पहरेदार
दावेदार
चौखट के पीछे
काई में सिंची भीतर की रोशनी
गीली
नम
जलमग्न गुफ़ा
कोख में जिसके
गुप्त विद्याओं को समेटे
मेंढ़कनुमा
हमारे गाँव का देवता
न जाने कब से
यहाँ पहले कुछ न था
इस टीले के सिवा