भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पहाड़ / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार मुकुल |संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / क...)
 
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 7 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=कुमार मुकुल
 
|रचनाकार=कुमार मुकुल
|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल
+
|अनुवादक=
 +
|संग्रह=परिदृश्य के भीतर / कुमार मुकुल
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
गुरूत्‍वाकर्षण तो धरती में है
 +
फिर क्‍यों खींचते हैं पहाड़
 +
जिसे देखो
 +
उधर ही भागा जा रहा है
  
पहाड़
+
बादल
 +
पहाडों को भागते हैं
 +
चाहे
 +
बरस जाना पडे टकराकर
 +
हवा
 +
पहाड़ को जाती है
 +
टकराती है ओर मुड जाती है
 +
सूरज सबसे पहले
 +
पहाड़ छूता है
 +
भेदना चाहता है उसका अंधेरा
 +
चांदनी वहीं विराजती है
 +
पड जाती है धूमिल
  
कैसा वलंद है पहाड़
+
पर
एक चट्टान
+
पेडों को देखे
जैसे खड़ी होती है आदमी के सामने
+
कैसे चढे जा रहे
उसका रुख मोड़ती हुई
+
जमे जा रहे
खड़ा है यह हवाओं के सामने
+
जाकर
  
चोटी से देखता हूं
+
चढ तो कोई भी सकता है पहाड
चींटियों से रेंग रहे हैं ट्रक
+
पर टिकता वही है
इसकी छाती पर
+
जिसकी जडें हो गहरी
जो धीरे-धीरे शहरों को
+
जो चटटानों का सीना चीर सकें
ढो ले जाएंगे पहाड़
+
उन्‍हें माटी कर सकें
जहां वे सड़कों, रेल लाइनों पर बिछ जाएंगे
+
बदल जाएंगे छतों में
+
  
धीरे-धीरे मिट जाएंगे पहाड़
+
बादलों की तरह
तब शायद मंगल से लाएंगे हम उनकी तस्वीरें
+
उडकर
या बृहस्पति, सूर्य से
+
जाओगे पहाड तक
बाघ-चीते थे
+
तो
तो रक्षा करते थे पहाड़ों की, जंगलों की
+
नदी की तरह
आदमी ने उन्हें अभयारण्यों में डाल रखा है
+
उतार देंगे पहाड
अब पहाड़ों को तो चििड़याखानों में
+
हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर।
रखा नहीं जा सकता
+
</poem>
प्रजनन कराकर बढ़ाई नहीं जा सकती
+
इनकी तादाद
+
 
+
जब नहीं होंगे सच में
+
तो स्मृतियों में रहेंगे पहाड़
+
और भी खूबूसरत होते बादलों को छूते से
+
हो सकता है
+
वे काले से
+
नीले, सफ़ेद
+
या सुनहले हो जाएं
+
द्रविड़ से आर्य हुए देवताओं की तरह
+
और उनकी कठोरता तथाकथित हो जाए
+
वे हो जाएं लुभावने
+
केदारनाथ सिंह के बाघ की तरह।
+
 
+
 
+
{{KKGlobal}}
+
{{KKRachna
+
|रचनाकार=कुमार मुकुल
+
|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल
+
}}
+
 
+
एक कुत्ते की तरह चांद
+
 
+
इस बखत ठंड भयानक है
+
और ठिठुरता हुआ मैं
+
बैठा हूं कमरे में
+
बाहर चांद एक कुत्ते की तरह
+
मेरा इंतज़ार कर रहा होगा
+
अभी मैं निकलूंगा
+
और पीछे हो लेगा वह
+
कभी भागेगा
+
आगे-आगे बादलों में
+
कभी अचानक किसी मोड़ पर रुककर
+
लगेगा मूतने
+
और फिर
+
भागता चला जाएगा आगे।
+
 
+
 
+
 
+
 
+
{{KKGlobal}}
+
{{KKRachna
+
|रचनाकार=कुमार मुकुल
+
|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल
+
}}
+
 
+
चेहरा
+
 
+
सूरज सिर पर हो
+
तो मैं नहीं समझता
+
कि आदमी का चेहरा साफ दिखता है
+
आंखें चौंधियाती सी हैं
+
 
+
चांदनी में चेहरा दिखता तो है
+
पर पढ़ा नहीं जाता
+
 
+
गोधूलि और प्रात अच्छे हैं
+
जब चेहरे खिलते और बोलते हैं
+
 
+
पर तारों की रोशनी में
+
तो रह ही नहीं जाता चेहरा
+
पूरी देह होती है चुप्पी में डोलती
+
अन्धे शायद सही समझते हों
+
तारों भरी रात की भाषा
+
जिसे वे बजाते हैं अक्सर
+
और प्रेमी भी
+
जो बचना चाहते हैं तेज रौशनी से
+
जिनके लिए आंख की चमक भर रौशनी ही
+
काफी होती है।
+
 
+
 
+
{{KKGlobal}}
+
{{KKRachna
+
|रचनाकार=कुमार मुकुल
+
|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल
+
}}
+
 
+
चांद-तारे
+
 
+
कांसे के हसिए सा
+
पहली का चांद जब
+
पश्चिमी फलक पर
+
भागता दिखता है
+
तब आकाश का जलता तारा
+
चलता है राह दिखलाता
+
दूज को दोनों में पटती है और भी
+
भाई-बहन से वे साथ चहकते हैं
+
पर तीज-चौठ को बढ़ती जाती है
+
चांद की उधार की रौशनी
+
और तारा
+
तेजी से दूर भागता
+
सिमटता जाता है खुद में
+
आकाश में और भी तारे हैं
+
जो जलते नहीं टिमटिमाते हैं
+
पर वे चांद को जरा नहीं लगाते हैं
+
निर्लज्ज चांद
+
जब दिन में
+
सूरज को दिया दिखलाता है
+
तारों को यह सब जरा नहीं भाता है।
+
{{KKGlobal}}
+
{{KKRachna
+
|रचनाकार=कुमार मुकुल
+
|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल
+
}}
+
 
+
महानगर
+
 
+
सुबहें तो तुम्हारी भी
+
वैसी ही गुंजान हैं
+
चििड़यों से-कि किरणों से
+
व भीगी खुशबू से
+
 
+
बस तुम ही हो इससे बेजार
+
कुत्ते की मानिन्द सोते रहते हो
+
 
+
तुम्हारे नाले विराट हैं कितने
+
बलखाती विविधताओं से पछाड़ खाते
+
और नदियों को
+
बना डाला है तुमने
+
तन्वंगी
+
और तुम्हारी स्त्रियां
+
कैसी रंगीन राख पोते
+
भस्म नजरों से देखती
+
गुजरती जाती हैं।
+

00:27, 14 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

गुरूत्‍वाकर्षण तो धरती में है
फिर क्‍यों खींचते हैं पहाड़
जिसे देखो
उधर ही भागा जा रहा है

बादल
पहाडों को भागते हैं
चाहे
बरस जाना पडे टकराकर
हवा
पहाड़ को जाती है
टकराती है ओर मुड जाती है
सूरज सबसे पहले
पहाड़ छूता है
भेदना चाहता है उसका अंधेरा
चांदनी वहीं विराजती है
पड जाती है धूमिल

पर
पेडों को देखे
कैसे चढे जा रहे
जमे जा रहे
जाकर

चढ तो कोई भी सकता है पहाड
पर टिकता वही है
जिसकी जडें हो गहरी
जो चटटानों का सीना चीर सकें
उन्‍हें माटी कर सकें

बादलों की तरह
उडकर
जाओगे पहाड तक
तो
नदी की तरह
उतार देंगे पहाड
हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर।