भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पहाड़ / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=कुमार मुकुल
 
|रचनाकार=कुमार मुकुल
|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल
+
|अनुवादक=
 +
|संग्रह=परिदृश्य के भीतर / कुमार मुकुल
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
गुरूत्‍वाकर्षण तो धरती में है
 
गुरूत्‍वाकर्षण तो धरती में है
 
 
फिर क्‍यों खींचते हैं पहाड़
 
फिर क्‍यों खींचते हैं पहाड़
 
 
जिसे देखो
 
जिसे देखो
 
 
उधर ही भागा जा रहा है
 
उधर ही भागा जा रहा है
 
  
 
बादल
 
बादल
 
 
पहाडों को भागते हैं
 
पहाडों को भागते हैं
 
+
चाहे
चाहे  
+
 
+
 
बरस जाना पडे टकराकर
 
बरस जाना पडे टकराकर
 
 
हवा
 
हवा
 
 
पहाड़ को जाती है
 
पहाड़ को जाती है
 
 
टकराती है ओर मुड जाती है
 
टकराती है ओर मुड जाती है
 
 
सूरज सबसे पहले
 
सूरज सबसे पहले
 
 
पहाड़ छूता है
 
पहाड़ छूता है
 
 
भेदना चाहता है उसका अंधेरा
 
भेदना चाहता है उसका अंधेरा
 
 
चांदनी वहीं विराजती है
 
चांदनी वहीं विराजती है
 
 
पड जाती है धूमिल
 
पड जाती है धूमिल
 
  
 
पर
 
पर
 
 
पेडों को देखे
 
पेडों को देखे
 
+
कैसे चढे जा रहे
कैसे चढे जा रहे  
+
 
+
 
जमे जा रहे
 
जमे जा रहे
 
 
जाकर
 
जाकर
 
  
 
चढ तो कोई भी सकता है पहाड
 
चढ तो कोई भी सकता है पहाड
 
 
पर टिकता वही है
 
पर टिकता वही है
 
+
जिसकी जडें हो गहरी
जिसकी जडें हो गहरी  
+
जो चटटानों का सीना चीर सकें
 
+
उन्‍हें माटी कर सकें
  
 
बादलों की तरह
 
बादलों की तरह
 
 
उडकर
 
उडकर
 
+
जाओगे पहाड तक
जाओगे पहाड तक  
+
 
+
 
तो
 
तो
 
 
नदी की तरह
 
नदी की तरह
 
 
उतार देंगे पहाड
 
उतार देंगे पहाड
 
+
हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर।
हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर ।
+
</poem>

00:27, 14 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

गुरूत्‍वाकर्षण तो धरती में है
फिर क्‍यों खींचते हैं पहाड़
जिसे देखो
उधर ही भागा जा रहा है

बादल
पहाडों को भागते हैं
चाहे
बरस जाना पडे टकराकर
हवा
पहाड़ को जाती है
टकराती है ओर मुड जाती है
सूरज सबसे पहले
पहाड़ छूता है
भेदना चाहता है उसका अंधेरा
चांदनी वहीं विराजती है
पड जाती है धूमिल

पर
पेडों को देखे
कैसे चढे जा रहे
जमे जा रहे
जाकर

चढ तो कोई भी सकता है पहाड
पर टिकता वही है
जिसकी जडें हो गहरी
जो चटटानों का सीना चीर सकें
उन्‍हें माटी कर सकें

बादलों की तरह
उडकर
जाओगे पहाड तक
तो
नदी की तरह
उतार देंगे पहाड
हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर।