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'''संंक्षिप्त परिचय'''
लोक जीवन के तत्वों को गीतों के माध्यम से चित्रित करने वाले लोक कवि, जिन्हें मध्य प्रदेश शासन का प्रथम ईसुरी पुरस्कार, ‘तुलसी के बिरवा जगाय’ नामक कृति हेतु 1970 में दिया गया। अपनी इस कृति में छत्तीसगढ़ के लोकगीतों को तराशकर सजाकर प्रस्तुत किया। वे संगीत प्रेमी थे, वाद्यों को बजाना, फोटोग्राफी से लोक जीवन की झलकियों को अपने कैमरे में कैद करना उनका शौक था। आदिवासी नर्तक दल के साथ सम्पूर्ण परिधान में वे नृत्य करते थे।
'''विस्तृत परिचय'''
छत्तीसगढ़ के बिरले साहित्यकारों में पंडित अमृतलाल दुबे का नाम अविस्मरणीय है। क्योंकि उन्होंने जंगलों में रचे बसे लोक जीवन के बिखरे सहित्य को पढ़ने और संग्रहित करने का सद्प्रयास किया है। म. प्र. आदिम जाति कल्याण विभाग में क्षेत्र संयोजक के पद पर नियुक्त होकर कार्य आरंभ करने वाले दुबे जी जंगलों और पहाड़ों की तराई में रहने वाले आदिम जातियों के वाचिक लोक साहित्य को केवल पढ़ा ही नहीं बल्कि उसका दुर्लभ संग्रह भी किया जिसे आदिम जाति कल्याण विभाग ने ‘‘तुलसी के बिरवा जगाय‘‘ शीर्षक से प्रकाशित किया है। उन्हीं के सद्प्रयास से विभाग द्वारा ‘‘आदिम जाति संस्कृति संरक्षण योजना‘‘ शुरू की गयी और इस पुस्तक का प्रकाशन प्रथम पुष्प के रूप में किया गया। आदिम जाति कल्याण विभाग के तत्कालीन संचालक ठा. भा. नायक स्वीकार करते हैं ः- ‘‘लोक साहित्य संग्रह की दिशा में यह हमारा पहला प्रयास है। मध्यप्रदेश का छत्तीसगढ़ अंचल लोकगीतों का धनी है। इनमें से अनेक लोकगीत आदिवासी तथा ग्राम्य जीवन में प्रायः समान रूप से प्रचलित हैं, जैसे करमा, सुआ, भोजली और ददरिया आदि। उल्लेखनीय है कि संस्कृति या वर्ग विशेष की विशिष्टता यहां महत्व नहीं रखती। लोक जीवन और भाषा की समानता उन्हें एक विचित्र साम्यता प्रदान करती है। श्री अमृतलाल दुबे ने अपनी अभिरूचि और छत्तीसगढ़ी लोक जीवन से निकटता के आधार पर ऐसे ही कुछ रोचक लोकगीतों का यह संकलन तैयार किया है। इसके लिए निःसंदेह वे हमारे बधाई के पात्र हैं।‘‘
आम तौर पर लोकगीतों का जो संग्रह देखने में आता है उनमें गीतों के साथ उनके लोकजीवन अथवा उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि पर कोई जानकारी नहीं रखती। लोकजीवन पर या तो संतुलित टिप्पणियां नहीं होती या वे इतना व्यापक और बोधगम्य नहीं होती कि एक अपरिचित क्षेत्र के लोकजीवन से पाठकों को अनायास परिचित करा सके। दुबे जी ने अपने इस संग्रह में बहुत हद तक इस कमी को पूरा किया है। इसकी एक झलक यहां प्रस्तुत है। श्रावण मास में जब प्रकृति अपने हरे परिधान से युक्त हो जाती है, कुषक अपने खेतों में बीज बोने के बाद गांव के चौपाल में ‘‘आल्हा‘‘ के गीत गाने में व्यस्त रहते हैं तब कृषक बालाएं प्रकृति देवी की आराधना हेतु ‘‘भोजली त्योहार‘‘ मनाती हैं। जिस प्रकार भोजली एक सप्ताह में बढ़ जाती है, उसी प्रकार खेतों में फसल की बढ़ोतरी दिन दूनी रात चौगुनी हो जाये...इस विचार से वह गा उठती है ः-
अहो देवी गंगा
देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा,
हमर भोजली दाई के भीजे आठों गंगा।
जब देवी गंगा की आराधना करती हुई ग्रामीण बालाएं कह रहीं हैं कि लहर रूपी तरंग अर्थात् घोड़े पर सवार होकर हे गंगा मैया तुम आओ, जिससे हमारी भोजली देवी के समस्त अंग एक साथ भीग जावे। तात्पर्य यह है कि हमारे प्रदेश में सूखा कभी न पड़े। एक अन्य गीत की बानगी पेश है ः-
आई गईस पूरा बोहाई गईस कचरा,
हमरो भोजली दाई के सोन सोन के अचरा।
गंगा माई के आगमन से उनकी भोजली देवी के आंचल स्वर्ण रूपी हो गये। अर्थात् खेतों में फसल तैयार हो गयी है। इससे धान के खेतों में लहराते हुये पीले पीले पौधे आंखों के सामने नाचने लगते हैं। इतना ही नहीं, उनकी सोच तो कुछ और है। देखिये ऐ गीत ः-
आई गईस पूरा बोहाई गईस मलगी।
हमरो भोजली दाई बर सोन सोन के कलगी॥
कृषकों का जीवन धान की खेती पर ही अवलंबित होता है। यदि फसल अच्छी हुई तो उनका पूरा वर्ष आनंद पूर्वक व्यतीत होगा, अन्यथा भविष्य भयावह है। फिर धान तो केवल वस्तु मात्र तो नहीं है, इसीलिये तो भोजली देवी के रूप में उसका स्वागत हो रहा है। देखिये एक गीत,
सोन के कलसा, गंगा जल पानी,
हमरो भोजली दाई के पैंया पखारी।
सोन के दिया कपूर के बाती,
हमरो भोजली दाई के उतारी आरती।
जब देवी की सेवा-अर्चना की है तो वरदान भी चाहिये, परन्तु अपने लिये नहीं भाई-भतीजों के लिये चाहिये, इसी का भाव है इस गीत में ः-
गंगा गोसाई गरब झनि करिहा,
भइया बौर भतीजा ला अमर देके जइहाकृ।
भारतीय संस्कृति का निचोड़ मानो यह कृषक बाला है। भाई के प्रति उनकी सहज, स्वाभाविक, त्यागमय अनुराग की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। देवी गंगा देवी गंगा की टेक मानो वह कल्याणमयी पुकार हो जो जन जन, ग्राम ग्राम को नित लहर तुरंग से ओतप्रोत कर दे...सब ओर अच्छी फसल होगी तो चारों ओर आनंद ही आनंद होगा और राउतों की टोली गली गली में नाच उठेगी। दुधारी गायों के गले में ‘‘सुहाई‘‘ बांधने के बाद राउत नाचने और गाने लगते हैं ः-
धन गोदानी भुंइया पावा, पावा हमर असीस,
नाती पूत ले घर भर जावे, जीवा लाख बरीस।
इसी प्रकार छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में ‘‘सुआ‘‘ और ‘‘करमा‘‘ मानो वियोग और संयोग गीतों के प्रतिनिधि है। सुआगीत तो मानो साक्षात् विरह गीत ही है। जब ललनाएं एक स्वर में सुआ को संबोधित कर पुकार उठती है ः-
पईया मैं लागंव चंदा सुरूज के,
सुअना, तिरिया जनम झनि देय।
जब समस्त नारी जाति की विरह व्यंजना मानो तीव्र रूप में अभिव्यंजित हो उठती है और मावन मन के तार को झनझना देती है। नारी का जीवन तो एक गाय के समान होती है जिसके साथ उसका सम्बंध जोड़ दिया जाता है, उसे निभाने के वह मजबूर होती है। तभी तो वह कह उठती है ः-
तिरिया जनम मोर गऊ के बराबर,
रे सुअना, जहं पठवय तहं जाय।
प्रियतम के विदेश चले जाने पर ससुराल का जीवन और भी कष्टप्रद हो जाता है। दुबे जी की एक कल्पना देखिये ः-
सास मोर मारय, ननद गारी देवय,
रे सुअना, राजा मार गये हे विदेश।
लहुरा देवर मोरे जनम के बैरी,
रे सुअना, ले जाबे तिरिया संदेस।
संसार में उसे कोई अपना दिखाई नहीं देता। जिस प्रकार पद्मावत में नागमति असहाय होकर चीत्कार उठती है- ‘‘पिऊ सो कहेहु संदेसा हे भौंरा, हे काग..‘‘ उसी प्रकार विरहाग्नि में जलती हुई नारी सुआ के शरण में जाकर कहती है- ‘‘रे सुअना! ले जाबे तिरिया संदेस ।‘‘ दुबे जी कहते हैं कि नारी के दुख का कोई अंत नहीं है। उनके गीत की एक बानगी पेश है ः-
पहिली गवन करि डेहरी बैइठारि,
रे सुअना ! अब छोड़ी चले बनझारि।
जे धनिरूप रहेव मैं अपने बपनवा,
ते धनि नाहि नया बन झारि॥
कैसा सहज, सरल और भारतीय नारी के अनुरूप वर्णन है। वह अपने पति का नाम नहीं ले सकती इसलिये उसके रूप का वर्णन करती है। जिस प्रकार सीता माता ‘‘ बहुरि वदन पुनि अंचल ढाकी ‘‘कहकर ईशारे से बता दिया कि युगल में कौन देवर है और कौन प्राणप्रिय पति। आदिवासी ललनाओं में भारतीय नारी सुलभ गुण आज भी विद्यमान है।
पंडित अमृतलाल दुबे छत्तीसगढ़ी ददरिया को भी बहुत अच्छे ढंग से रेखांकित करने का प्रयास किया है। ..देखते देखते चैत मास समाप्त हो जाता है, पर छत्तीसगढ़ के पर्वतीय प्रदेश में सबेरे काफी ठंड रहती है। महुआ के फल टपकने लगते हैं और उसे बीनने के लिये युवक युवतियों का दल महुआ पेड़ों के नीचे जा पहुंचते हैं। दोनों के बीच छींटाकसी होने लगती है। इसे छत्तीसगढ़ी ददरिया कहलाता है। देखिये इसका एक रूप ः-
करै मुखारी करौंदा रूख के,
एक बोली सुना दे अपन मुख के।
तत्काल उसी ढंग की एक लंबी तान में दूसरी ओर से पुरूष आवाज में प्रत्युत्तर मिलता है ः-
एक ठिन आमा के दुई फांकी,
मोर आंखिच आंखी झुलथे तोरेच आंखी।
ददरिया गीतों की रानी है। इसे कुछ लोग ‘‘साल्हो‘‘ भी कहते हैं। अन्य गीत तो वर्ष में नियत समय में ही बाये जाते हैं। परन्तु ददरिया अजस्र प्रवाह की भांति वर्ष भर गाये जाते हैं। इसे बहुधा लोग संवाद के रूप में स्त्री-पुरूष दोनों गाते हैं। एक गीत की बानगी देखिये ः-
परसा के साड़ी विराले पड़वा,
तोर आइ गय जवानी गड़ाले मड़वा।
तोला कोनो नइ पूछय झूमै मांछी,
बीन ले लुगरा दिये आंधी।
कोई भी नारी अपने सौंदर्य का अपमान सहन नहीं कर सकती। इसलिये प्रत्युत्तर में कहती है ः-
आगी करै चिरचिरा जरै,
तोर कनवा आंखी म कीरा परै।
इस प्रकार ददरिया को प्रणय गीत भी माना गया है। तभी तो वे एक दूसरे के उपर छींटाकसी करते हैं। यह ग्राम्यांचलों में प्रकृति के अनुरूप गाये जाने वाले गीत हैं। इस प्रकार दुबे जी ने ‘‘तुलसी के बिरवा जगाय‘‘ में राउतों कीे देवारी, गौरा पूजा, माता सेवा और करमा के गीत संग्रहित किये हैं। ये गीत वास्तव में ग्रामीण अंचलों की सांस्कृतिक परम्परा को रेखांकित करती है। आज भी छत्तीसगढ़ के ग्राम्यांचलों में ये गीत गाये जाते हैं।
बिलासपुर के अरपा पार सरकंडा के श्री भैरवप्रसाद दुबे और श्रीमती राम बाई के इकलौते पुत्र के रूप में श्री अमृतलाल दुबे का जन्म 01 अगस्त सन् 1925 को हुआ। उनके उपर रामायणी पिता के कड़े अनुशासन और ममतामयी मां की धार्मिकता का व्यापक असर पड़ा। यही कारण है कि दुबे जी अंतिम क्षणों तक गायत्री परिवार को समर्पित रहे। कष्टमय बचपन को आर्थिक पूर्ति में झोंकने वाले दुबे जी के मन में पढ़ने की ललक बनी हुई थी। कदाचित् इसी कारण 12 वर्ष की अल्पायु में पेंडरी के पंडित शंभुनाथ दुबे की कन्या मोतिन बाई से विवाह सूत्र में बंधने के बाद भी 17 वर्ष की आयु में अपनी पढ़ाई पुनः शुरू किये और बी. ए. करके धरमजयगढ़ के वनवासी सेवा मंडल में क्षेत्राधिकारी के रूप में पदस्थ हुये। लेकिन पढ़ने की ललक ने उन्हें अंततः हिन्दी साहित्य में एम. ए. करने के लिए बाध्य किया। एम. ए. करने के बाद वे म. प्र. आदिम जाति कल्याण विभाग में क्षेत्र संयोजक के रूप में नियुक्त हुये। अपनी सेवाकाल में वे भोपाल, रायपुर, रतलाम, इंदौर, उज्जैन, बिलासपुर, सरगुजा, बस्तर, खरगौन, धार और झाबुआ आदि जगहों में रहे और वहो के पहाड़ी क्षेत्रों के जन जीवन को बहुत करीब से देखा। सन् 1958 में टाटा इंस्टीट्यूट अॉफ सोसल सांइसेस से ट्रेनिंग प्राप्त किये जो आगे चलकर आदिवासी जन जीवन को समझने में मददगार सिद्ध हुई। सन् 1964-65 में अस्पृश्यता निवारण समिति के सचिव के साथ मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत के राज्यों का भ्रमण के साथ अध्ययन किया। इसके परिणाम स्वरूप वहां के गीतों को संग्रहित करने की योजना बनी। सन् 1963 में म. प्र. आदिम जाति कल्याण विभाग द्वारा उनके लोकगीतों के इस संग्रह को प्रकाशित की गई। इसी वर्ष उन्हें इसी पुस्तक पर ‘‘म. प्र. का ईसुरी पुरस्कार‘‘ प्रदान किया गया।
पंडित अमृतलाल दुबे इस पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते हैं ः- ‘‘आदिवासी लोक साहित्य के संकलन बाबत् शान से निर्देश प्राप्त होते रहते थे। इससे प्रेरित होकर मैंने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों को संकलित करने का निश्चय किया। लोक साहित्य में मेरी बचपन से रूचि रही है। अतः समय पाकर मैं इस कार्य में लग गया। इस कार्य में डॉ. वेरियर एल्विन और डॉ. एस. सी. दुबे मेरे लिये प्रकाश स्तम्भ और मार्गदर्शक थे। छत्तीसगढ़ के उन्मुक्त वातावरण में लोक जीवन की झलक मुझे देखने को मिली और मैं उन्हें समेटने लगा। आज इस पुस्तक के रूप में यह आपके समक्ष है।‘‘ लोकगीतों का साहित्य एवं अनुसंधान दोनों दृष्टि में महत्वपूर्ण है। म. प्र. के आदिवासी अंचल विशेषकर छत्तीसगढ़ लोक साहित्य से समृद्ध है। यहां के गीत और नृत्य जहां हमारे लिये मनोरंजन के साधन हैं वहीं आदिवासियों के जीवन के अंग भी हैं। लुप्त हो रहे सांस्कृतिक परम्पराओं को संरक्षित करने की दिशा में दुबे जी का यह प्रयास केवल सराहनीय ही नहीं है बल्कि स्तुत्य और स्वागतेय भी है।
एक लंबे समय तक आदिम जाति कल्याण विभाग को जिला संयोजक, उप संचालक, संयुक्त संचालक, और प्रोजेक्ट अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएं देने वाले दुबे जी का 55 वर्ष की अल्पायु में 02 अप्रेल सन् 1980 में देहावसान हो गया। इस प्रकार वे केवल अपना भरा पूरा परिवार को विलखता नहीं छोड़े बल्कि छत्तीसगढ़ के साहित्यिक जगत को सूना कर गये जिसकी भरपायी आज तक संभव नहीं हो पायी है। सन् 1953 में प्रयास प्रकाशन द्वारा उनकी हिन्दी-छत्तीसगढ़ी कविताओं का संग्रह ‘‘मानस मुक्ता‘‘ प्रकाशित हुआ है। इसी प्रकार सन् 1995 में उनकी छः कविताओं का संग्रह ‘‘मुलिया‘‘ प्रकाशित हुआ है। दुबे जी की अन्यान्य रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी के अम्बिकापुर, रायपुर और इंदौर केंद्रों से हुआ है। वे भारतीय संगीत और फोटोग्राफी के शौकिन थे। वे संगीत, सत्संग, भजन और यज्ञ आदि का आयोजन अक्सर किया करते थे। वे सदा ‘‘सादा जीवन और उच्च विचार‘‘ के अनुयायी रहे। वे हमेशा शाकाहारी और सात्विक रहे। समयानुसार भारतीय वेशभूषा और सत्साहित्य के पठन पाठन और संग्रहण में अग्रणी रहे। निःसंदेह उनका जीवन और चरित्र हमारे लिये प्रेरणादायी है। संभवतः एक सन्यासी के रूप में दुबे जी का अवतरण हुआ था। इसीलिये उनका जीवन कर्मयोगी जैसा निस्पृह, सतत् सत्कर्म में अग्रसर, कर्मठ, दृढ़ और निर्झरणी की भांति प्रफुल्ल हृदय और कोमल मानवीय गुणों से परिपूर्ण था। वे अत्यंत सहज, सरल, निश्छल, मिलनसार और समाज के हित के प्रति सदा समर्पित रहे। ईश्वर आराधना उनका प्राणतत्व था। ऐसे छत्तीसगढ़ के सत्साहित्य पुरूष को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है।
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