भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मोर गॉंव कहॉं सोरियावत हें / बुधराम यादव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=बुधराम यादव
 
|रचनाकार=बुधराम यादव
|संग्रह=गॉंव कहॉं सोरियावत हें / बुधराम यादव
+
|संग्रह=गॉंव कहॉं सोरियावत हें
 
}}
 
}}
 
{{KKCatGeet}}
 
{{KKCatGeet}}
 
{{KKCatChhattisgarhiRachna}}
 
{{KKCatChhattisgarhiRachna}}
 
<poem>
 
<poem>
देखते देखत अब गांव गियाँ
+
जुन्ना दइहनहीं म जब ले
सब शहर कती ओरियावत हें!
+
दारु भट्ठी होटल खुलगे
कलपत कोयली बिलपत मैना
+
मोर गाँव कहाँ सोरियावत हें!
+
ओ सुवा ददरिया करमा अउ
+
फागुन के फाग नंदावत हे
+
ओ चंदैनी ढोला-मारू
+
भरथरी भजन बिसरांवत हे!
+
 
+
डोकरी दाई के जनउला*
+
कहनी किस्सा आनी बानी!
+
ओ सुखवंतिन के चौरा अउ
+
आल्हा रमायन पंडवानी!
+
तरिया नदिया कुंवाँ बवली के
+
पानी असन अटावत हें!
+
 
+
सुकुवा* ऊवत नींद भर रतिहा
+
अउ कुकरा बासत भिनसरहा
+
अब पनिहारिन गगरी* मांजय
+
न बहरी बाजय मुंधियरहा*!
+
उठ नवा बहुरिया घर लीपय
+
 
+
न गोबर हेरंय लछमैतीन !
+
ढेंकी* मूसर के आरो तो
+
बिन सूने गुजर गय क इयो दिन!
+
अब खोर गली छर्रा-छिटका*
+
न अंगना गोबर लिपावत हे!
+
 
+
अमली-चटनी आमा-चानी
+
भाटा-खोइला* सुक सा-भाजी*!
+
बंडी पोलखा के लेन देन
+
ओ हाट-बाट खउवा-खाजी!
+
बर पीपर पिकरी* चार जाम
+
बन बोइर तेंदू अउ औंरा!
+
चर्रा गिल्ली डंडा फुगड़ी
+
सब बिसरागंय बांटी भौंरा!
+
अब नवा जिनिस मन ऊपरागंय
+
जुन्ना* जमो तरियावत* हें!
+
 
+
अब अधरतिहा दौंरी फांदय
+
न पंगपंगात* नागर साजंय
+
जतवा* कहुं बाजय घरर घरर
+
न दही मथावय घमर घमर!
+
पहुना परमेसर नइ मानय
+
गीता रमायन नइ जानय!
+
न किंजरय फेरी गली गली
+
न सरेखंय अब हली भली !
+
जुग भर के जोरे मया पिरीत
+
के गठरी सब छरियावत हे!
+
 
+
ओ खेतवरिया के रूखुवा म
+
रेरा चिरइया के खोंधरा*!
+
रूंधे बांधे बारी बखरी
+
पाके सुार जोंधरी जोंधरा!
+
ओ हरेली के गेंड़ी अउ
+
पोरा के नंदी जंतुलिया!
+
बिहाव के सिंघहा-झांपी* अउ
+
नोनी के नानुक झंपुलिया*
+
करसा करी के लाड़ू संग
+
अब बतासा बिसरावत हें!
+
 
+
ओ तरिया तीर नदिया खंड़ म
+
कुहक त फुदकत बइठे कोयली!
+
ओ घाघर तितुर के तुर तुर
+
अउ मैना के अइंठे बोली!
+
पड़की के घुटरब* घुटुर घुटुर
+
अउ कठखोलवा के खटर खटर!
+
खंचवा* कस आँखी खुसरा के
+
घुवा के बड़का बटर बटर!
+
ओसरी पारी सब गाँव छोड़
+
डोंगरी पहरी बर जावत हें!
+
 
+
भूखन घर बाबू के छट्ठी
+
दुखिया घर के ओ अतमैती* !
+
बर पीपर अउ लीम छइहाँ तरि
+
गुड़ी म बइठे पंचयती!
+
उन पंच कहाँ परमेसर कस
+
अब तो बछवा कस अदरा* हें।
+
कहे बर छांटे-निमेरे
+
पन सिरतो बदरा-बदरा हें!
+
लरहा मरहा तक पद पाके
+
रतिहा भर म हरियावत हें!
+
 
+
अब मरघटिया अउ गौचर का
+
धरसा* म धांन बोवावत हे!
+
गउठान बिना कोठा भीतर
+
गरूवा बछरू बोमियावत* हें!
+
जेती देखव बेजा कब्जाह
+
रस्ता अउ डगर छेंकाये हें।
+
सब पाप पोटारे बइठे हें
+
पुन कौंड़ी असन फेंकाये हें!
+
लोटा धर बाहिर जाये बर
+
माई मन बड़ सकुचावत हें!
+
 
+
जुन्ना दइहनही म जब ले
+
दारूभट्ठी होटल खुलगे!
+
 
टूरा टनका मन बहकत हें
 
टूरा टनका मन बहकत हें
सब चाल चरित्तलर भुलगें!
+
सब चाल चरित्तर भूलगें
 
मुख दरवाजा म लिखाये
 
मुख दरवाजा म लिखाये
हावय पंचयती राज जिहाँ।
+
हावय पंचयती राज जिहाँ
चतवारे* खातिर चतुरा मन
+
चतवारे खातिर चतुरा मन
नइ आवत हावंय बाज उहाँ!
+
नई आवत हांवय बाज उहाँ
 
गुरतुर भाखा सपना हो गय
 
गुरतुर भाखा सपना हो गय
सब कॉंव कॉंव नरियावत हें!
+
सब काँव -काँव  नारियावत हें
 
+
देखते देखत अब गाँव गियाँ
*हिन्दी अरथ – जनउला : पहेली बुझाना, सुकुवा : शुक्रतारा, गघरी : पानी का घड़ा, मुंधरिहा : भोर का समय, ढेंकी : पैर से अनाज कूटने हेतु लकड़ी का उपकरण, छर्रा-छिटका : छिड़कना, भांटा-खोइला : धूप में सुखाए गए कटे हुए भटे के टुकड़े, सुकसा-भाजी : धूप में सुखाई गई चना,तिवरा,गोभी आदि की भाजी, पिकरी : पीपल का फल, जुन्नार : पुराना, तरियावत : नीचे होना, पंगपगांत : सूर्योदय पूर्व, जतवा : कोदो दलने हेतु मिट्टी की बड़ी चकिया, खोंधरा : घोंसला, झांपी : शादी में कन्या पक्ष की ओर से वर पक्ष को सगुन के सामान भरकर दिये जाने वाला बाँस से निर्मित ढक्कन सहित बड़ा टोकना, झपुलिया : ढक्क्न वाली बाँस की विशिष्ट टोकरी, घुटरब : आवाज निकालना, खंचवा : गड्ढा, अतमैती : मृत्यु:भोज, अदरा : नवसिखिया, धरसा : गाँव में निस्तार हेतु बैल गाडिय़ों एवं जानवरों के आने-जाने के लिए छोड़ा गया चौड़ा रास्ता, बोमियावत : अधीरता से आवाज निकालना, चतवारे : साफ करना।
+
सब सहर कती ओरियावत हें !
 +
कलपत कोयली बिलपत मैना
 +
मोर गाँव कहाँ सोरियावत हें !
 
</poem>
 
</poem>

20:20, 27 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

जुन्ना दइहनहीं म जब ले
दारु भट्ठी होटल खुलगे
टूरा टनका मन बहकत हें
सब चाल चरित्तर ल भूलगें
मुख दरवाजा म लिखाये
हावय पंचयती राज जिहाँ
चतवारे खातिर चतुरा मन
नई आवत हांवय बाज उहाँ
गुरतुर भाखा सपना हो गय
सब काँव -काँव नारियावत हें
देखते देखत अब गाँव गियाँ
सब सहर कती ओरियावत हें !
कलपत कोयली बिलपत मैना
मोर गाँव कहाँ सोरियावत हें !