भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सूरज का रथ / हरि ठाकुर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरि ठाकुर |संग्रह=हँसी नाव सी / हरि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

01:34, 2 नवम्बर 2016 के समय का अवतरण

कुंठित पड़ी दिशाएँ
खंडित पड़ा गगन है।
तारों की खिड़कियों से
पत्थर बरस रहे हैं।

सूरज का रथ विपथ हो
नभ में भटक रहा है।
टूटे हुए क्षितिज पर
दिन भर लटक रहा है।

सूखा रहा है सावन
बादल बने हैं दुश्मन।
चंदा की रोशनी से
विषधर बरस रहे हैं।

मेरी नहीं ये ऋतुएँ
मेरा नहीं यह उपवन।
हर फूल अजनबी है
निर्गंध है प्रभंजन।

यह शीश नहीं मेरा
कंधे जो ढो रहे हैं।
ये अर्थ नहीं जिनको
अक्षर तरस रहे हैं।