भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"खण्ड-3 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=आलाप...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
पंक्ति 23: पंक्ति 23:
 
सच  ही  कहा  कि  कविता  मेरी  दोषयुक्त-गुणहीन
 
सच  ही  कहा  कि  कविता  मेरी  दोषयुक्त-गुणहीन
 
लेकिन  हित  के  और  सहित के आसन पर आसीन  
 
लेकिन  हित  के  और  सहित के आसन पर आसीन  
 
  
 
‘‘अभिधा  में  ही  बात  करूंगा कलियुग की ताकत है  
 
‘‘अभिधा  में  ही  बात  करूंगा कलियुग की ताकत है  
पंक्ति 29: पंक्ति 28:
 
मैं भी  तीसरी  आँख  शब्द की  जान  रहा हूँ लेकिन
 
मैं भी  तीसरी  आँख  शब्द की  जान  रहा हूँ लेकिन
 
काम करेंगी दो  आँखें  हीं,  जैसे,  खिला-खिला दिन  
 
काम करेंगी दो  आँखें  हीं,  जैसे,  खिला-खिला दिन  
 
  
 
‘‘कविता  का  तो  अर्थ तभी है, जब हो भावक-भावुक
 
‘‘कविता  का  तो  अर्थ तभी है, जब हो भावक-भावुक
पंक्ति 67: पंक्ति 65:
 
और  हवन से  उठा  हुआ ज्यों धुआं चिता का धू-धू
 
और  हवन से  उठा  हुआ ज्यों धुआं चिता का धू-धू
 
बहने  लगता  घोर  भयावह  भय  मन  में  है हू-हू  
 
बहने  लगता  घोर  भयावह  भय  मन  में  है हू-हू  
कर्मकाण्ड  के  महाजाल  में  माया  का  वह  नत्र्तन
+
कर्मकाण्ड  के  महाजाल  में  माया  का  वह  नर्तन
अवश-विवश  उस  मेरे मन पर कलि का घोर विवत्र्तन
+
अवश-विवश  उस  मेरे मन पर कलि का घोर विवर्तन 
 
टूटा  हुआ  धनुष वेदी  पर  हविश  यज्ञ  का अच्युत
 
टूटा  हुआ  धनुष वेदी  पर  हविश  यज्ञ  का अच्युत
 
उससे भी  कुछ  अधिक  दीन हूँ धरती पर मैं प्रत्युत ।’’
 
उससे भी  कुछ  अधिक  दीन हूँ धरती पर मैं प्रत्युत ।’’
 
</poem>
 
</poem>

15:21, 25 दिसम्बर 2016 का अवतरण

‘‘जो, जो कहा, सुना सब मैंने, अब मैं भी कुछ बोलूँ
हँसने का अधिकार नहीं, तो यह भी नहीं कि रो लूँ
तुमने ठेठी की बातें कर मुझको जगा दिया है
शोर विहग-बच्चों का फिर से मन में मचा दिया है
सच कहते हो, देशी से मैं कभी नहीं कट पाया
कभी तुम्हारी तरह नहीं मैं इधर उधर बँट पाया
ठेठी मेरी वह ताकत है, जब चाहूँ दुख कह लूँ
भावों की सिन्धु में चाहे जैसे, उतना बह लूँ
कहीं डूबने-मरने का भय इसमें तनिक नहीं है
गोता मारो, ऊपर जाओ; यह सुख और कहीं है
ठेठी माँटी की गीता है, यह मनौन-होरी है
फुलवारी में फूल बीनती मालिन है, गोरी है
तुम गँवार ही बोलो मुझको, बनते रहो विदेशी
मैं तो अपनी ठेठी में ही बात करूंगा देसी
सच ही कहा कि कविता मेरी दोषयुक्त-गुणहीन
लेकिन हित के और सहित के आसन पर आसीन

‘‘अभिधा में ही बात करूंगा कलियुग की ताकत है
मुझको कुछ परवाह नहीं कि मुझसे कौन विरत है
मैं भी तीसरी आँख शब्द की जान रहा हूँ लेकिन
काम करेंगी दो आँखें हीं, जैसे, खिला-खिला दिन

‘‘कविता का तो अर्थ तभी है, जब हो भावक-भावुक
सच कहने में कभी भी नहीं, उसका जी हो धुक-धुक
ज्ञानी हो सब देश-काल का, प्रज्ञा से पंडित हो
उसे अभी ही जान तुरत ले, आगे कहीं घटित हो
कवि के ये गुण भावक के हों, तब कविता अर्थायण
काल-काल का बन जाता है, ऐसे क्या रामायण
स्वाति बूंद का मोल तभी है, जब सीपी में आए
कदली के कोमल निर्मल-सा मन में गिरे, समाए
लेकिन यह सौभाग्य स्वाति के हर कण को क्या मिलता
यहाँ तो गोता लगा नहीं कि ऊपर तुरत निकलता
इसीलिए अभिधा-आज्ञा पर मैं हूँ ध्यान लगाता
न जाने कितने जन्मों से इससे मेरा नाता
सीधे-सादे छन्दों पर लय का अबाध हो विचरण
वाणी रुके जहाँ भी चाहे, यति का किए निवारण
लय में नहीं रुकावट आए, यही छन्द की मुक्ति
कितनी बार कहा यह मैंने, भले कहो पुनरुक्ति
उलझे हुए शब्द, वाक्य का विचलन, सब है ठीक
पर कबीर की वाणी की भी बनी हुई है लीक
उसी लीक का लिए सहारा मन को खोल रहा हूँ
जिसको अब तक सहा युगों से उसको तोल रहा हूँ

‘‘लेकिन नहीं कहूँगा दुख को जो भी कथा अकथ है
यह भी नहीं कहूँगा, रण में फँसा कर्ण का रथ है

‘‘कैसी थी वह मृत्यु पिता की काली, घोर भयावह
जलती हुई चिता से आती, चीख कोई हो रह-रह
कैसा था कंकाल अनुज का साँसों पर उड़ता था
ठठरी के कोने में दुबका जीवन था कुढ़ता-सा
युग बीते पर बुझी चिता की आग नहीं बुझ पाई
अगम कुआँ के जल पर जो है वह तो बस परछाँई
जल के भीतर जो बैठा है दुख का काला दैत्य
नहीं कभी वह बनने देता तन को, मन को चैत्य
फोटू मुझे दिखाता है वह माँ की हिलती ठठरी
छोटी-सी खटिया पर जैसेµबंधी हुई हो गठरी
और हवन से उठा हुआ ज्यों धुआं चिता का धू-धू
बहने लगता घोर भयावह भय मन में है हू-हू
कर्मकाण्ड के महाजाल में माया का वह नर्तन
अवश-विवश उस मेरे मन पर कलि का घोर विवर्तन
टूटा हुआ धनुष वेदी पर हविश यज्ञ का अच्युत
उससे भी कुछ अधिक दीन हूँ धरती पर मैं प्रत्युत ।’’