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"गरीबा / लाखड़ी पांत / पृष्ठ - 8 / नूतन प्रसाद शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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कथरी ओढ़ कोन अब सोवय, मुंह झुलझुल पर पछल गे रात
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सुकुवा ऊग ठाड़ होगे अउ, कुकरा कुकरूँग कूं चिल्लात।
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गांव गंवई के घड़ी इही मन, बता सकत के समय कतेक!
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सरका काम कभू नइ मांगय – हमर मंजूरी देव अतेक।
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खटिया छोड़ कृषक मन उठगें, आय टेम ओलहा निपटाय
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आंख धोवई ला घलो छोड़ के, धन ला देवत पयरा खाय।
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“”मंय बासी ला कभू खांव नइ, कहां तात ला सकत अगोर!
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अगर नंगरही टेम मं बिलमत, खरथरिहा कहिहंय – कमचोर।”
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बइला मन के पेट हा भरगे, तंहने सनम होत तैयार
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जोंता नांगर लउड़ी गांकर, तुमड़ी भर जल धर लिस साथ।
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ककरो ले झन पिछुवा जावय, तइसे बढ़त रबारब पैर
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धन मन मार कदम्मा दउड़त, भर्री पहुंच के ठहरन पैन।
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कांसी बन दूबी बउछाए, हल नइ रेंगत धर के रास
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आखिर “राउत’ मड़ा के रेंगत, तब धरती मं धंसथय नास।
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कोरलगहा धर चलत सनम हा, पर पठले भुंइया अंड़ जात
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हल के मुठिया जमा के दाबत, ढेला मन ऊपर आ जात।
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बइला मन हा खंइचत नांगर, उंकरो लोढ़िया – भरगे पांव
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तब ले कोंघर के काम बजावत, हारत कहां काम के दांव!
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गांकर ला अब उड़ा सनम हा मारत दूसर हरिया।
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नंगत ताकत ला खावत – तब निकलत माटी करिया।
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देवत देह पछीना कारी, नस मन चरचर दर्शन देत
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मुंह चोपियात पियास जनावत, यद्यपि जल ला रूक रूक लेत।
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करत क्वांर के घाम बदरहा, होत सनम के चकचिक आंख
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पेट पोचक के अंदर चल दिस, मुंह झोइला जस करिया राख।
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पाठक मन ले एक निवेदन – तुमन सनम पर दया देखाव
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बपुरा कतका देह हा टोरय, अब तो नांगर ला ढिलवाव।
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नास लुका के ढेला अंदर, सनम हा वापिस होत मकान
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तिही बीच डकहर हा आथय, रोक लीस फट सनम के पांव।
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कहिथय -“”जइसे तोर माल मन, काम करे बर बहुत सजोर
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उसने बने सपुतहा धन ला, लान लेंव मंय घर मं मोर।
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बुतकू ऊपर अैतस बेवस्ता, ओला नाप देंव मंय कर्ज
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लेकिन ओहर पटा सकिस नइ, बढ़त चलिस ऋण ब्याज के रोग।
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ऋण के बल्दा मं बिसाय हंव, बुतकू के बइला ला आज
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अब तो निश्चय सिद्ध तोर अस, बचे हवय जे ओलहा काज।”
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डकहर बड़नउकी ला मारत, खुद ला सिद्ध करत हे ऊंच
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ओतका तक मं तुष्टि मिलिस नइ , तब अब करत अपन तारीफ –
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“”अपन कथा ला मंय बतात हंव, यद्यपि तंय जानत सब भेद
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ईश्वर छाहित हवय मोर पर, तब मंय बढ़ेंव बिपत ला छेद –
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एकर पूर्व तोर अस कंगला, बिन पूंजी के रेहेंव गरीब
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सप सप भूख पेट हा झेलय, स्वादिल जिनिस चिखय नइ जीब।
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घर कुरिया तक बिक गिस तंहने, मंय बम्बई कमाय चल देंव
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चुहा पसीना मिहनत करके – अड़बड़ अक धन ला सकलेंव।
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अब मंय वापिस गांव मं आके, बने चलावत हवंव दुकान
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मोला कष्ट दीस तेकर ले, मंय प्रतिशोध लेत हंव तान।”
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अतका कहि के डकहर सल्टिस, सनम अपन घर सरसर जात
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थोरिक मं बुतकू हा मिलथय, जेकर मुंह दुख के बरसात।
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बुतकू रोथय -“”का बतांव मंय, डकहर छीन लेग गे जान
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जउन माल मन मोर जिन्दगी, ओमन होगिन आज बिरान।
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दूनों धन मन कुबल सपुतहा, लखिया – धंवरा उनकर रंग
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लइका मन फोड़ी बदथंय तस, चारा चरंय दुनों मिल साथ।
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उनकर पूंछ लाम पतरेंगा, सरग पतालिया मोहक सींग
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उनकर मुंह हा लमचोचका नइ, कमई मं ताफड़ टींगे टींग।
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ओमन ला वन मं चराय बर, एक दिवस मंय धर के गेंव
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एक शेर हा आइस तंहने, मंय हा डर मं चुप छुप गेंव।
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बइला मन ला देख शेर हा, पहुंच गीस खब उंकर समीप
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देख शेर ला बइला मन हा, आगू बढ़िन खिंचे बर जीब।
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आंख बरनिया – पांव ला खुरचत, क्रोध मं भर फर्रेटिन जोर
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शेर सुकुड़दुम हो के खसकिस, तब बच पाइस जीवन मोर।
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दूनों बइला मन फुरमानुक, काम करे बर त्यागंय ढेर
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बिगर मुंहू के रिहिन जानवर, चलन पियारुकाम बजांय।
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तेन कमइया ला डकहर हा, लउठिच लउठी झड़किस तान
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धन मन सींग हला के रहिगें, पर नइ छोड़िन मोर मकान।
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हकिया के डकहर हा बोलिस -“”जब्दा हवय तोर ए माल
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करत डायली – खुर ला रोपत, अपन माल ला तिंही निकाल।”
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मोरेच सम्मुख मोर प्राण के, डकहर करिस हइन्ता खूब
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पर मंय कहां देव कुछ उत्तर, यद्यपि क्रोध हा कंस उफनैस।
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दुनों कमइया मन हा मोला, चांटे लग गिन जीब निकाल
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ओतका बखत आत्मा कलपिस, मोर शरीर करा अस सून।
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धरती माता हा फटतिस ते धंसतेंव तन के सुद्धा।
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अइसन क्रूर समय नइ आतिस – कहां ले दुख के हुद्दा।
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जब बइला मन हा नइ निकलिन, तब डकहर हा करिस उपाय
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बइला मन ला मोठ डोर मं, एकदम कंस के बंधवा लीस।
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गाड़ा ऊपर लाश असन रख, धन ला लेगिस डकहर क्रूर
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का करतिन बपुरा मूक पशु मन, बन मजबूर – बिगर मन गीन।
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जब ले धन मन घर ला त्यागिन, खांव खांव घर कुरिया होत
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अन महराज सुहावत नइये, आत्मा रोवत बिगर अवाज।”
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चेत लगा के सनम हा सुनिसे, कहिथय -“”कृषक के जीवन बैल
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यदि एमन हा हाथ ले निकलत, गिरत कृषक पर दुख के शैल।
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डकहर के कुछ कहां ओसला, पहिली रिहिस बहुत कंगाल
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लेकिन बम्बई पहुंच के जोड़िस, देखे तक नइ ततका माल।
 
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15:12, 7 जनवरी 2017 के समय का अवतरण

कथरी ओढ़ कोन अब सोवय, मुंह झुलझुल पर पछल गे रात
सुकुवा ऊग ठाड़ होगे अउ, कुकरा कुकरूँग कूं चिल्लात।
गांव गंवई के घड़ी इही मन, बता सकत के समय कतेक!
सरका काम कभू नइ मांगय – हमर मंजूरी देव अतेक।
खटिया छोड़ कृषक मन उठगें, आय टेम ओलहा निपटाय
आंख धोवई ला घलो छोड़ के, धन ला देवत पयरा खाय।
“”मंय बासी ला कभू खांव नइ, कहां तात ला सकत अगोर!
अगर नंगरही टेम मं बिलमत, खरथरिहा कहिहंय – कमचोर।”
बइला मन के पेट हा भरगे, तंहने सनम होत तैयार
जोंता नांगर लउड़ी गांकर, तुमड़ी भर जल धर लिस साथ।
ककरो ले झन पिछुवा जावय, तइसे बढ़त रबारब पैर
धन मन मार कदम्मा दउड़त, भर्री पहुंच के ठहरन पैन।
कांसी बन दूबी बउछाए, हल नइ रेंगत धर के रास
आखिर “राउत’ मड़ा के रेंगत, तब धरती मं धंसथय नास।
कोरलगहा धर चलत सनम हा, पर पठले भुंइया अंड़ जात
हल के मुठिया जमा के दाबत, ढेला मन ऊपर आ जात।
बइला मन हा खंइचत नांगर, उंकरो लोढ़िया – भरगे पांव
तब ले कोंघर के काम बजावत, हारत कहां काम के दांव!
गांकर ला अब उड़ा सनम हा मारत दूसर हरिया।
नंगत ताकत ला खावत – तब निकलत माटी करिया।
देवत देह पछीना कारी, नस मन चरचर दर्शन देत
मुंह चोपियात पियास जनावत, यद्यपि जल ला रूक रूक लेत।
करत क्वांर के घाम बदरहा, होत सनम के चकचिक आंख
पेट पोचक के अंदर चल दिस, मुंह झोइला जस करिया राख।
पाठक मन ले एक निवेदन – तुमन सनम पर दया देखाव
बपुरा कतका देह हा टोरय, अब तो नांगर ला ढिलवाव।
नास लुका के ढेला अंदर, सनम हा वापिस होत मकान
तिही बीच डकहर हा आथय, रोक लीस फट सनम के पांव।
कहिथय -“”जइसे तोर माल मन, काम करे बर बहुत सजोर
उसने बने सपुतहा धन ला, लान लेंव मंय घर मं मोर।
बुतकू ऊपर अैतस बेवस्ता, ओला नाप देंव मंय कर्ज
लेकिन ओहर पटा सकिस नइ, बढ़त चलिस ऋण ब्याज के रोग।
ऋण के बल्दा मं बिसाय हंव, बुतकू के बइला ला आज
अब तो निश्चय सिद्ध तोर अस, बचे हवय जे ओलहा काज।”
डकहर बड़नउकी ला मारत, खुद ला सिद्ध करत हे ऊंच
ओतका तक मं तुष्टि मिलिस नइ , तब अब करत अपन तारीफ –
“”अपन कथा ला मंय बतात हंव, यद्यपि तंय जानत सब भेद
ईश्वर छाहित हवय मोर पर, तब मंय बढ़ेंव बिपत ला छेद –
एकर पूर्व तोर अस कंगला, बिन पूंजी के रेहेंव गरीब
सप सप भूख पेट हा झेलय, स्वादिल जिनिस चिखय नइ जीब।
घर कुरिया तक बिक गिस तंहने, मंय बम्बई कमाय चल देंव
चुहा पसीना मिहनत करके – अड़बड़ अक धन ला सकलेंव।
अब मंय वापिस गांव मं आके, बने चलावत हवंव दुकान
मोला कष्ट दीस तेकर ले, मंय प्रतिशोध लेत हंव तान।”
अतका कहि के डकहर सल्टिस, सनम अपन घर सरसर जात
थोरिक मं बुतकू हा मिलथय, जेकर मुंह दुख के बरसात।
बुतकू रोथय -“”का बतांव मंय, डकहर छीन लेग गे जान
जउन माल मन मोर जिन्दगी, ओमन होगिन आज बिरान।
दूनों धन मन कुबल सपुतहा, लखिया – धंवरा उनकर रंग
लइका मन फोड़ी बदथंय तस, चारा चरंय दुनों मिल साथ।
उनकर पूंछ लाम पतरेंगा, सरग पतालिया मोहक सींग
उनकर मुंह हा लमचोचका नइ, कमई मं ताफड़ टींगे टींग।
ओमन ला वन मं चराय बर, एक दिवस मंय धर के गेंव
एक शेर हा आइस तंहने, मंय हा डर मं चुप छुप गेंव।
बइला मन ला देख शेर हा, पहुंच गीस खब उंकर समीप
देख शेर ला बइला मन हा, आगू बढ़िन खिंचे बर जीब।
आंख बरनिया – पांव ला खुरचत, क्रोध मं भर फर्रेटिन जोर
शेर सुकुड़दुम हो के खसकिस, तब बच पाइस जीवन मोर।
दूनों बइला मन फुरमानुक, काम करे बर त्यागंय ढेर
बिगर मुंहू के रिहिन जानवर, चलन पियारुकाम बजांय।
तेन कमइया ला डकहर हा, लउठिच लउठी झड़किस तान
धन मन सींग हला के रहिगें, पर नइ छोड़िन मोर मकान।
हकिया के डकहर हा बोलिस -“”जब्दा हवय तोर ए माल
करत डायली – खुर ला रोपत, अपन माल ला तिंही निकाल।”
मोरेच सम्मुख मोर प्राण के, डकहर करिस हइन्ता खूब
पर मंय कहां देव कुछ उत्तर, यद्यपि क्रोध हा कंस उफनैस।
दुनों कमइया मन हा मोला, चांटे लग गिन जीब निकाल
ओतका बखत आत्मा कलपिस, मोर शरीर करा अस सून।
धरती माता हा फटतिस ते धंसतेंव तन के सुद्धा।
अइसन क्रूर समय नइ आतिस – कहां ले दुख के हुद्दा।
जब बइला मन हा नइ निकलिन, तब डकहर हा करिस उपाय
बइला मन ला मोठ डोर मं, एकदम कंस के बंधवा लीस।
गाड़ा ऊपर लाश असन रख, धन ला लेगिस डकहर क्रूर
का करतिन बपुरा मूक पशु मन, बन मजबूर – बिगर मन गीन।
जब ले धन मन घर ला त्यागिन, खांव खांव घर कुरिया होत
अन महराज सुहावत नइये, आत्मा रोवत बिगर अवाज।”
चेत लगा के सनम हा सुनिसे, कहिथय -“”कृषक के जीवन बैल
यदि एमन हा हाथ ले निकलत, गिरत कृषक पर दुख के शैल।
डकहर के कुछ कहां ओसला, पहिली रिहिस बहुत कंगाल
लेकिन बम्बई पहुंच के जोड़िस, देखे तक नइ ततका माल।