भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कन्ता न जाओ शहर / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=डी. एम. मिश्र |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> कन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

16:33, 9 जनवरी 2017 के समय का अवतरण

कन्ता न जाओ शहर
गाँव की मजूरी भली।

धान की रोपाई का
और फिर कटाई का
मौसम जब आयेगा
कौन सहारा देगा
किसके बलबूते पर बोझ
उठायेंगे हम

मेड़ से जो फिसलेंगे
और फिर न सँभलेंगे
कौन बाँह थामेगा

कजरी के दिन होंगे
झूलों की ऋतु होगी
किसके सँग पेंग बढ़ायेंगे हम

आधी -टूका खाकर जी लेंगे
लेकिन आषाढ़ की न दूरी भली।

कोल्हू हाँकेगे
रस चूसेंगे
गन्ने का
जाड़ा कट जायेगा
कपड़ा भी कम होगा
तो भी सब चल जायेगा
गेहूँ के पकते ही
डेहरी के भरते ही
दुख सारा कट जायेगा
बिटिया के भाग जगेंगे
पीले हाथ करेगे
अब की साल में
ऊँचे महलों के पावदानों पर सोने से
अपने घर की खटिया टूटी भली।